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प्रमाणमीमांसा
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तद् द्वधा ॥३॥ ६-'तद्' वचनात्मकं परार्थानुमानं 'द्वेधा' द्विप्रकारम् ॥३॥ ७-प्रकारभेदमाह
तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभेदात् ॥४॥ ८-'तथा' साध्ये सत्येव 'उपपत्तिः' साधनस्येत्येकः प्रकारः, 'अन्यथा' साध्याभावे 'अनुपपत्तिः' चेति द्वितीयः प्रकारः । यथा अग्निमानयं पर्वतः तथैव धूमवत्त्वोपपत्तेः, अन्यथा धूमवत्त्वानुपपत्तेर्वा । एतावन्मात्रकृतः परार्थानुमानस्य भेदो न पारमार्थिकः स इति भेदपदेन दर्शयति ॥४॥ ९-एतदेवाह
नानयोग्तात्पर्ये भेदः ॥५॥ १०-'न' 'अनयोः' तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिरूपयोः प्रयोगप्रकारयोः 'तात्पर्ये' 'यत्परः शब्दः स शब्दार्थः' इत्येवंलक्षणे तत्परत्वे, 'भेदः' विशेषः । एतदुक्तं भवति अन्यदभिधेयं शब्दस्यान्यत् कादयं प्रयोजनम् । तत्राभिधेयापेक्षया वाचकत्वं भिद्यते। प्रकाश्यं त्वभिन्नम्, अन्वये कथिते व्यतिरेकमतिर्व्यतिरेके चान्वयगतिरित्युभयत्रापि
सूत्रार्थ--वह दो प्रकार का है ॥३। ६-वचनात्मक परार्थानुमान दो प्रकार का है ॥३॥ ७- वे प्रकार भेद निम्न हैं सूत्रार्थ--१-तथपपत्ति,२-अन्यथानुपपत्ति ॥४॥
८-साध्य के होने पर ही साधन का होना तथोपपत्ति है और साध्य के अभाव में साधन का अभाव होना 'अन्यथानुपपत्ति, है। यथा-यह पर्वत अग्निमान् है क्योंकि अग्निमान होने पर ही धमवान हो सकता है (यह तथोपपत्ति है)। अग्निमान न होने पर धमवान नहीं हो सकता (यह अन्यथानुपपत्ति है)।परार्थानुमान के जो दो भेद कहे हैं,उनमें इतना सा ही अन्तर है। कोई वास्तविक भेद नहीं है।॥४॥
९- इसी बात को निम्न सूत्र में भी कहते हैंसूत्रार्थ-तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति के अर्थ में भेद नहीं है ॥५॥
तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति यह दो प्रयोग के प्रकार हैं। इन दोनों के तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं है । शब्द का जो पर-प्रकृष्ट अर्थ है वह तात्पर्य कहलाता है। अभिप्राय यह है कि शब्द का वाच्य अलग होता है और प्रकाश्य-प्रयोजन अलग होता है । यहाँ वाच्य की अपेक्षा से वाचकत्व में भेद हो जाता है,फिर भी प्रकाश्य (आशय) एक ही है । अन्वय (तथोपपत्ति) के कहने से व्यतिरेक (अन्यथानुपपत्ति) का ज्ञान हो जाता है और व्यतिरेकके कहनेसे अन्वयका ज्ञान होजाता है अन्वय और व्यतिरेक दोनों का आशय साधन के साथ साध्य का अविनाभाव प्रशित करना है