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________________ ११२ प्रमाणमीमांसा ४-अचेतनं हि वचनं न साक्षात्प्रमितिफलहेतुरिति न निरुपचरितप्रमाणभावभाजनम्, मुख्यानुमानहेतुत्वेन तूपचरितानुमानाभिधानपात्रता प्रतिपद्यते । उपचारश्चात्र कारणे कार्यस्य । यथोक्तसाधनात् तद्विषया स्मृतिरुत्पद्यते, स्मृतेश्चानुमानम्, तस्मादनुमानस्य परम्परया यथोक्तसाधनाभिधानं कारणम्, तस्मिन् कारणे वचने कार्यस्यानुमानस्योपचारः समारोपः क्रियते । ततः समारोपात् कारणं वचनमनुमानशब्देनोच्यते । कार्ये वा प्रतिपादकानुमानजन्ये वचने कारणस्यानुमानस्योपचारः । वचनमौपचारिकमनुमानं न मुख्यमित्यर्थः । ५-इह च मुख्यार्थबाधे प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते । तत्र मुख्योऽर्थः साक्षात्प्रमितिफलः सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणशब्दसमानाधिकरणस्य परार्थानुमानशब्दस्य, तस्य बाधा, वचनस्य निर्णयत्वानुपपत्ते : । प्रयोजनम् अनुमानावयवाः प्रतिज्ञादय इति शास्त्रे व्यवहार एव, निर्णयात्मन्यनंशे तद्व्यवहारानुपपत्तेः । निमित्तं तु निर्णयात्मकानुमानहेतुत्वं वचनस्येति ॥२॥ .. ४-वचन पौद्गलिक होने से अचेतन है । वह प्रमिति का साक्षात् कारण नहीं हो सकता और इस कारण मुख्य रूप से प्रमाण भी नहीं हो सकता, किन्तु मुख्य अनुमान (स्वार्थानुमान) का कारण होने से उसमें उपचरित अनुमान की पात्रत्रा है। तात्पर्य यह है कि किसी को साधन से साध्य का जो ज्ञान हुआ,वह स्वार्थानुमान या मुख्यानुमान कहलाया; तत्पश्चात् उसने किसी दूसरे को बोध कराने के लिए उसे वचनों द्वारा प्रकट किया। वचनों के प्रयोग से दूसरे को अनुमिति उत्पन्न हुई । वही परार्थानुमान है किन्तु उपचार से वह वचन भी परार्थानुमान है । यहाँ कारण में कार्य का उपचार--आरोप है । अतएव परार्थानुमान का कारण वचन अनुमानशब्द से कहा गया है । अथवा कार्य में कारण का उपचार है क्योंकि प्रतिपादक के स्वार्थानुमान से उत्पन्न हुए वचनरूप कार्य में कारण का अनुमान का आरोप किया गया है । तात्पर्य इतना ही है कि वचन उपचार से ही अनुमान कहलाता है । वह मुख्य अनुमान नहीं है। ५-जब मुख्य अर्थ में बाधा आती हो, किन्तु कोई प्रयोजन तथा निमित्त हो तब उपचार किया जाता है । परार्थानुमान का मुख्य अर्थ है-प्रमिति को साक्षात् रूप से उत्पन्न करने वाला सम्यगर्थनिर्णय । यह अर्थ मानने से ही 'प्रमाण' शब्द के साथ उसकी समानाधिकरणता हो सकती है। किन्तु वचन जड होने से निर्णय (निश्चयात्मक ज्ञान) नहीं हो सकता । यह मुख्य अर्थ में बाधा हुई । किन्तु प्रयोजन यह है कि शास्त्र में प्रतिज्ञा हेतु आदि अनुमान के अवयव कहे गये हैं । अगर वचनात्मक परार्थनुमान न माना जाय तो प्रतिज्ञा आदि को अनुमान का अवयद नहीं कहा जा सकता । रह गया निमित्त, सो वह यह है कि वचन निर्णयात्मक अनुमान का कारण होता है,इस प्रकार मुख्य अर्थ में बाधा प्रयोजन और निमित्त होने से वचन में अनुमान का उपचार होता हैं ॥२॥
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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