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॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥
१-लक्षितं स्वार्थमनुमानमिदानी क्रमप्राप्तं परार्थमनुमानं लक्षयति
यथोक्तसाधनाभिधानजः परार्थम् ॥१॥ २-'यथोक्तम्' स्वनिश्चितसाध्याविनाभावैकलक्षणं यत् 'साधनम्' तस्याभिधानम् । अभिधीयते परस्मै प्रतिपाद्यते अनेनेति 'अभिधानम्' वचनम्, तस्माज्जातः सम्यगर्थनिर्णयः 'परार्थम्' अनुमानं परोपदेशापेक्षं साध्यविज्ञानमित्यर्थः ॥१॥ ३-ननु वचनं परार्थमनुमानमित्याहुस्तत्कथमित्याह
वचनमुपचारात् ॥२!
१-स्वार्थानुमान के लक्षण का निरूपण किया जा चुका है । अब क्रमप्राप्त परार्थानुमान का लक्षण कहते हैं
सूत्रार्थ-पूर्वोक्त साधन केबो लने से उत्पन्न होने काला ( सम्यगर्थनिर्णय )परार्थानुमान कहलाता है ॥१॥
२-पहले कहा जा चुका है कि जिसका साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव हो वह साधन है, उस साधन को वचन द्वारा कहने से दूसरे को सम्यगर्थ का निर्णय होता है, वह परार्थानुमान है। अभिप्राय यह है कि परोपदेश से ( दूसरे के कथन से ) उत्पन्न होने वाला साध्य का ज्ञान परानुमान कहलाता है।
३-शंका-आपने परोपदेश से होने वाले साध्यज्ञान को अनुमान कहा है, किन्तु परोपदेश अर्थात् बचनों को भी अनुमान कहा जाता है,सो कैसे ? इसका समाधान करते हैं
सूत्रार्थ--वचन उपचार से परार्थानुमान है ॥२॥