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________________ प्रमाणमीमांसा १०१ भासावुक्तौ । असाधारणोऽपि यदि साध्याभावेऽसन्निति निश्चीयेत तदा प्रकारान्तरा भावात्साध्यमुपस्थापयन्नानकान्तिकः स्यात् । अपि च यद्यम्वयो रूपं स्यात् तदा यथा विपक्षकदेशवृत्तेः कथञ्चिदव्यतिरेकादगमकत्वम्, एवं सपक्षकदेशवृत्तेरपि स्यात् कथञ्चिदनन्वयात् । यदाह ____ "रूपं यद्यन्वयो हेतोर्व्यतिरेकवदिष्यते । स सपक्षोभयो न स्यादसपक्षोभयो यथा ॥" सपक्ष एव सत्त्वमन्वयो न सपक्षे सत्त्वमेवेति चेत् ; अस्तु, स तु व्यतिरेक एवेत्यस्मन्मतमेवाङ्गीकृतं स्यात् । वयमपि हि प्रत्यपीपदाम अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुरिति । ४८--तथा, एकस्मिन्नर्थे दृष्टेऽदृष्टे वा समवाय्याश्रितं साधनं साध्येन । तच्चकार्थसमवायित्वम् एफफलादिगतयो रूपरसयोः, शकटोदय-कृत्तिकोदययोः, चन्द्रोदयसमुद्रवृद्धयोः, वृष्टि-साण्डपिपीलिकाक्षोभयोः,नागवल्लीदाह-पत्रकोथयोः। तत्र एकार्थसमवायो' रसो रूपस्य, रूपं वा रसस्य; नहि समानकालभाविनोः कार्यकारणभावः सम्भवति । यदि यह निश्चय हो जाय कि वह साध्य के अभाव में नहीं होता तो बह साध्य का साधक होगा हो,उसे अनेकान्तिक नहीं कहा जा सकता।हेतृत्व के लिये यही एक प्रकार है कि वह साध्य के अभाव में न हो। दूसरी बात यह है कि यदि अन्वय को हेतु का स्वरूप माना जाय तो जैसे विपक्ष के एक देश में रहने से भी किसी अंश में विपक्षासत्त्व न होने से हेत अगमक हो जाता है,उसी प्रकार सपक्ष के एक देश में रहने वाला भी हेतु अगमक हो जाना चाहिए, क्योंकि उसमें भी किसी अंश में अन्वय (सपक्षसत्त्व) नहीं पाया जाता है । कहा भी हैं 'यदि व्यतिरेक (विपक्षासत्व) के समान भन्वय (सपक्षसत्त्व)को भी हेतु का स्वरूप स्वीकार किया जाय तो जो हेतु सपक्ष के एक देश में रहता है और एक देश में नहीं रहता,वह हेतु नहीं होना चाहिए; जैसे कि विपक्ष के एक देश में रहने वाला और एक देश में न रहने वाला हेतु नहीं होता है ।'शंका-'सपक्ष में ही रहना'अन्वय कहलाता है,सपक्ष में रहना ही घटित ऐसा अन्वय का स्वरूप नहीं है । अर्थात् हेतु यदि सपक्ष में रहे भी और न भी रहे तो भी अन्वय घटित हो जाता है, केवल विपक्ष में नहीं रहना चाहिए । समाधान-तब तो यह व्यतिरेक ही कहलाया और इस प्रकार से आपने हमारे मत को हो स्वीकार कर लिया। आखिर हम भी यही कहते हैं कि हेतु का एक मात्र लक्षण अन्यथानुपपत्ति ही है। __४८-(४)एकार्थसमवायि-दृष्ट या अद्दष्ट एक ही पदार्थ में समवाय से जो साधन साध्य के साथ रहा हुआ हो, वह एकार्थसमवायि कहलाता है । वह एकार्थसमवायि एक ही फल में रहे हुए रूप और रस में, शकटोदय और कृत्तिकोदय में, चन्द्रोदय और समुद्रवृद्धि में, वृष्टि और अण्डोंसहित पिपीलिकाओं के क्षोभ में तथा नागवल्लीदाह और पत्रकोथ में समझना चाहिए। यहाँ रस रूप का और रूप रस का एकार्थसमवायी है। क्योंकि ये समकालभावी वस्तुओं में कार्यकारणभाव नहीं होता।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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