________________
प्रमाणमीमांसा
४५ - कारणाभावेऽपि कार्यस्य भावे अहेतुत्वमन्यहेतुत्वं वा भवेत् । अहेतुत्वे सदा सत्त्वमसत्त्वं वा भवेत् । अन्यहेतुत्वे दृष्टादन्यतोऽपि भवतो न दृष्टजन्यता अन्याभाast टाद्भवतो नान्यहेतुकत्वमित्यहेतुकतैव स्यात् । तत्र चोक्तम् - "यस्त्वन्यतोऽपि भवन्नुपलब्धो न तस्य धूमत्वं हेतुभेदात् । कारणं च वह्निर्धूमस्य इत्युक्तम् । 'अपि चअग्निस्वभावः शक्रस्य मूर्द्धा यद्यग्निरेव सः ।
अथानग्निस्वभावisit धूमस्तत्र कथं भवेत् || ” ( प्रमाणवा० १.३७ ) इति ।
४६ - तथा चेतनां विनानुपपद्यमानः कार्यं प्राणादिरनुमापयति तां श्रावणत्वमिवानित्यताम् विपर्यये बाधकवशात्सत्त्वस्येवास्यापि व्याप्तिसिद्धेरित्युक्तप्रायम् । तन्न प्राणादिरसाधारणोऽपि चेतनां व्यभिचरति ।
१००
४७ -- किंच, नान्वयो हेतो रूपं तदभावे हेत्वाभासाभावात् । विपक्ष एव सन् विरुद्ध:, विपक्षेsपि अनैकान्तिकः, सर्वज्ञत्वे साध्ये वक्तृत्वस्यापि व्यतिरेकाभाव एव हेत्वाभासत्वे निमित्तम्, नान्वयसन्देह इति न्यायवादिनापि व्यतिरेकाभावादेव हेत्वा
४५ - कारण के अभाव में भी कार्य होता है तो या तो वह निर्हेतुक समझा जाएगा या अन्य हेतु । यदि वह निर्हेतुक है तो उसको सदैव सत्ता या सदैव असत्ता होनी चाहिए । यदि वह अन्यहेतुक है तो हृष्ट कारण जन्य नहीं होगा और अन्य कारण के अभाव में दृष्ट कारण से जनित होगा तो अन्य कारण भी नहीं रहेगा। इस प्रकार अनियत हेतुक होने से उसे निर्हेतुक ही मानना पडेगा । कहा भी है- ' जिसकी उत्पत्ति अन्य कारण से भी होती देखी जाती हैं, वह वस्तुतः धूम ही नहीं है, क्यों क उसका कारण दूसरा है। धूम का कारण तो अग्नि है । अर्थात् यह निश्चय है कि धूम का उद्भव अग्नि से ही होता है, ऐसी स्थिति में जो अग्नि के सिवाय किसी अन्य कारण से उत्पन्न होता है उसे धूम ही नहीं समझना चाहिए। और भी कहा है-
इन्द्रमूर्धा यदि अग्निस्वभाव है तो वह अग्नि हो है । और यदि वह अग्निरूप नहीं है तो वहाँ तो कैसे हो सकता है ?
४६ - इसी प्रकार चेतना के बिना नहीं होने वाला प्राणादि कार्य ( श्वासोच्छ् वासादि ) चेतना का अनुमापक होता है, जैसे श्रावणत्व हेतु अनित्यता का अनुमापक होता है । यह तो पहले कह ही चुके हैं कि विपर्यय में बाधक प्रमाण होने से प्राणादि हेतु की सस्व हेतु के समान व्याप्ति सिद्ध होती है । अतएव प्राणादि हेतु असाधारण अर्थात् सपक्षसत्त्व से रहित होने पर भी चेतना से व्यभिचरित नहीं है ।
४७ - इसके अतिरिक्त अन्वय हेतु का स्वरूप नहीं है, क्योंकि अन्वय के अभाव में भी कोई हेतु हेत्वाभास नहीं होता। जो हेतु विपक्ष में ही रहता है, वह विरुद्ध कहलाता है, जो विपक्ष में भी ( और सपक्ष में भी रहता है, वह अनैकान्तिक होता है । सर्वज्ञत्व साध्य में वक्तृत्व हेतु मो हेत्वाभास है सो व्यतिरेक के अभाव के कारण है अन्वय में सन्देह होने से नहीं । न्यायवादी ( धर्मकीत्ति) ने भी व्यतिरेक के न बनने से भी हेत्वाभास कहे हैं। किसी असाधारण हेतु के विषय में