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It is to be understood that although there may be some difference between the five characteristics and the other aspects of existence, in reality, they are not separate from existence. Therefore, whatever was previously stated about existence, such as its being, non-being, distinctness, non-distinctness, oneness, multiplicity, being present in all substances, being present in one substance, being the form of the universe, being of one form, having infinite synonyms, and having one synonym, should all be considered as belonging to the substance that follows it. Therefore, there is no specific characteristic of existence that would establish existence as truly separate from substance.
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________________ पंचास्तिकाय प्राभृत भावादिभ्यः कथञ्चिद् भेदेऽपि वस्तुतः सत्ताया अपृथग्भूतमेवेति मन्तव्यम्। ततो यत्पूर्व सत्त्वमसत्त्वं विलक्षणत्वमविलक्षणत्वमेकत्वमनेकत्वं सर्वपदार्थस्थितत्वमेकषदास्थितत्वं विश्वरूपत्वमेकरूपत्वमनन्तपर्यायत्वमेकपर्यायत्व च प्रतिपादितं सत्तायास्तत्सर्वं तदनन्तरभूतस्य द्रव्यस्यैव द्रष्टव्यम् । ततो न कश्चिदपि तेषु सत्ताविशेषोऽवशिष्येत यः सत्ता वस्तुतो द्रव्यात्पृथक् व्यवस्थापयेदिति ।।९।। हिन्दी समयव्याख्या गाथा-९ अन्वयार्थ—( तान् तान् सद्भापर्यायान् ) उन-उन सद्भावपर्यायोंको ( यत् ) जो ( द्रवति ) द्रवित होता है--( गच्छदि ) प्राप्त होता है, (तत् ) उसे ( द्रव्यं भणन्ति ) ( सर्वज्ञ ) द्रव्य कहते हैं- ( सत्तात; अनन्यभूतं तु ) जो कि सत्तासे अनन्यभूत है। टीका—यहाँ सत्ताको और द्रव्यको अर्थान्तरपना ( भिन्नपदार्थपना) अन्य होनेका खंडन किया गया है। 'उन-उन क्रमभावी और सहभावी सद्भावपर्यायोंको अर्थात् स्वभावविशेषोंको जो द्रवित होता है-प्राप्त होता है—सामान्यरूप स्वरूपसे व्याप्त होता है, वह 'द्रव्य है'—इस प्रकार अनुगत अर्थवाली निरुक्तिसे द्रव्यकी व्याख्या की गई। और यद्यपि लक्ष्यलक्षण भावादिक द्वारा द्रव्यका सत्तासे कथंचित् भेद है तथापि वस्तुतः द्रव्य सत्तासे अपृथक् ही है ऐसा मानना । इसलिये पहले ( ८ वी गाथामें ) सत्ताको जो सत्पना, असत्पना, त्रिलक्षणपना, अत्रिलक्षणपना, एकपना, अनेकपना, सर्वपदार्थस्थितपना, एकपदार्थस्थितपना, विश्वरूपपना, एकरूपपना, अनंतपर्यायमयपना और एकपर्यायमयपना कहा गया वह सब सत्तासे अनर्थान्तरभूत ( अभिन्नपदार्थभूत, अनन्यपदार्थभूत ) द्रव्यके ही देखना चाहिये अर्थात् मानना चाहिये इसलिये उनमें ( उन सत्ताके विशेषोंमें ) कोई सत्ताविशेष शेष नहीं रहता जो कि सत्ताको वस्तुत: ( परमार्थतः ) द्रव्यसे पृथक् स्थापित करे ।।९।। संस्कृत तात्पर्य वृत्ति गाथा-९ अथ सत्ताद्रव्ययोरभिन्नत्वं प्रत्याख्याति:—दवियदि-द्रवति । द्रवति कोर्थ: गच्छदि-गच्छति । व । वर्तमानकाले । द्रोष्यति, गभिष्यति, भाविकाले, अदुद्रुवत् गतं भूतकाले । कान् । ताई ताई सब्भावपज्जयाई-तांस्तान् सद्भावपर्यायान् स्वकीयपर्यायान् । जं-यत् । कर्तृ । दवियत्तं भण्णंतिहि तद्रव्यं भणन्ति सर्वज्ञा हि स्फुटं । अथवा द्रवति स्वभावपर्यायान्, गच्छति विभावपर्यायान् । इत्थंभूतं द्रव्यं किं सत्ताया भिन्नं भविष्यति ? नैवं | अणण्णभूदं-तु सत्तादो अनन्यभूतमभिन्नं । कस्याः सत्ताया: निश्चयनयेन । यत एव संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेपि निश्चयनयेन सत्ताया द्रव्यमभिन्नं तत एव पूर्वगाथायां यत्सत्तालक्षणं कथितं सर्वपदार्थस्थितत्वं एकपदार्थस्थितत्वं विश्वरूपत्वमेकरूपत्वमनन्तपर्यायत्वमेकपर्यायत्वंत्रिलक्षणत्वमविलक्षणत्वमेकरूपत्वमनेकरूपत्वं चेति तत्सर्व लक्षणं
SR No.090326
Book TitlePanchastikay
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreelal Jain Vyakaranshastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages421
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size11 MB
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