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"The five-fold characteristics, beginning with 'pribhrit', are also 'ekarupa'. (5) The infinity of each category is determined by the (individual, different) entities existing in each category, therefore the infinite-category-possessing (entity) is also one-category-possessing (i.e., the general-specific-most entity, being the form of the great entity, is 'infinite-category-possessing', while the same entity, being the form of the intermediate entity, is also 'one-category-possessing'). Thus, everything is nirvan (i.e., the above-mentioned all-encompassing form is flawless, unobstructed, and free from any contradiction), because its (the form of the entity) statement is subject to two nayas, leaning towards the representation of the general and the specific." (8)
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________________ " पंचास्तिकाय प्राभृत भी होनेंम्मे 'एकरूप' भी है।। ( 5 ) प्रत्येक पर्यायमें स्थित ( व्यक्तिगत भिन्नभिन्न ) सत्ताओं द्वारा ही प्रतिनिश्चित एक-एक पर्यायोंका अनंतपना होता है इसलिये अनंतपर्यायमय ( सत्ता ) को एकपर्यायमयपना है ( अर्थात् जो सामान्यविशेषातमक सत्ता महासत्तारूप होनेसे 'अनंतपर्यायमय' है वहीं यहाँ कही हुई अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे 'एकपर्यायमय' भी है । ) __ इस प्रकार सब निरवन है ( अर्थात् ऊपर कहा हुआ सर्व स्वरूप निदोष है, निर्बाध है. किंचित् बिरोधवाला नहीं है ) क्योंकि उसका ( सत्ताके स्वरूपका ) कथन सामान्य और विशेषकी प्ररूपणाकी ओर ढलते हुए दो नयोंके आधीन है ।।८।। संस्कृत तात्पर्य वृत्ति गाथा-८ हदि भवति । का कौं । सत्ता । सत्ता कथंभूता । सच्चपदत्या सर्वपदार्था । पुनरपि कथंभूता ? सविस्सरूवा सविश्वरूपा। पुनरपि किं विशिष्टा। अणंतपज्जाया-अनंतपर्याया। पुनरपि कि विशिष्णा । भंगुप्यादधुवत्ता-भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका । पुनश्च किं विशिष्टा ? एक्का-महासत्तारूपेणका । एवं पंचविशेषणविशिष्टा सत्ता किं निरंकुशा नि:प्रतिपक्षा भविष्यति ? नैवं । सप्पडिवखासप्रतिपक्षवेति वार्तिक । तथाहि-स्वद्रव्यादिचतुष्टयरूपेण सत्तायाः परद्रव्यादिचतुष्टयरूपेणासत्ता प्रतिपक्षः, सर्वपदार्थस्थितायाः सत्तायाः एकपदार्थस्थिता प्रतिपक्षः, मूर्तो घटः सौवणों घट: ताम्रो घटः इत्यादिरूपेण सविश्वरूपाया नानरूपाया एकघटरूपा सत्ता प्रतिपक्षः, अथवा विवक्षितैकघट वर्णाकारादिरूपेण विश्वरूपाया: सत्ताया विवक्षितैकगन्धादिरूपा प्रतिपक्ष:, कालत्यापेक्षयानन्तपर्यायाया: सत्ताया विवक्षिनेकपर्यायसत्ता प्रतिपक्षः, उत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण त्रिलक्षणायाः सनाया विवक्षितैकस्योत्पादस्य वा व्ययस्य वा ध्रौव्यस्य वा सत्ता प्रतिपक्ष:, एकस्या महासत्ताया अवान्तरसना प्रतिपक्ष इति शुद्धसंग्रहनयविवक्षायामेका महासत्ता अशुद्धसंग्रहनयविवक्षायां व्यवहारनयविवक्षायां वा सर्वपदार्थसविश्वरूपायवान्तरसत्ता । सप्रतिपक्षव्याख्यानं सर्व नैगमनयापेक्षया ज्ञातव्यं । एवं नैंगममंग्रहव्यवहारनयत्रयेण योजनीयं, अथवैका महासत्ता शुद्धसंग्रहनयेन, सर्वपदार्थाद्यवान्तरसना व्यवहानयेनेति नयद्वयव्याख्यानं कर्तव्यं । अत्र शुद्धजीवास्तिकायसंज्ञस्य शुद्धजीवद्रव्यस्य या सत्ता सँवापादेयो भवतीति भावार्थः ।।८।। इति प्रथमस्थले सत्तालक्षागमुख्यत्वेन व्याख्यानेन गाथा गता। हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-८ उत्थानिका-अब अस्तित्वका स्वरूप कहते हैं अथवा सत्ता रूप मूलगुणको रखनेवाले द्रव्य है ऐसा समझ कर पहले सत्ताका स्वरूप कहर कर फिर द्रव्यका व्याख्यान करेगें ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर भगवान् कुन्दकुन्द आगेका सूत्र कहते हैं अन्वय सहित सामान्यार्थ-( सत्ता ) अस्तिरूप सत्ता ( सन्दपयत्था) सर्व पदार्थोमें मा
SR No.090326
Book TitlePanchastikay
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreelal Jain Vyakaranshastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages421
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size11 MB
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