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The description of the path to liberation through the nine substances is purity. This purity arises in the knower of truth when the passions are completely destroyed. Sometimes, even the knower experiences this purity in the intermediate realms, due to the use of the passions, which are not completely abandoned, following their arising. ||138||
Commentary: This is a statement about the nature of the defilement of the mind. Defilement is the agitation of the mind caused by the intense arising of anger, pride, deceit, and greed. Purity is the calmness of the mind caused by the mild arising of these same passions. This purity arises in the ignorant when the passions are completely destroyed. Sometimes, even the knower experiences this purity in the intermediate realms, due to the use of the passions, which are not completely abandoned, following their arising. ||138||
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नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन प्रसादोऽ कालुष्यम् । तत् कादाचित्कविशिष्टकषायक्षयोपशमे सत्यज्ञानिनो भवति । कषायोदयानुवृत्तेरसमप्रव्यावर्तितोपयोगस्यावांतरभूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपि भवतीति ।।१३८।।
अन्वयार्थः– ( यदा । जब ( क्रोधः वा ) क्रोध, ( मानः ) मान, ( माया ) माया ( वा ) अथवा ( लोभः ) लोभ (चित्तम् आसाद्य ) चित्तका आश्रय पाकर (जीवस्य ) जीवको ( क्षोभ करोति ) क्षोभ करते हैं, तब ( तं ) उसे ( बुधाः ) ज्ञानी ( कालुष्यम् इति च वदन्ति ) 'कलुषता' कहते हैं।
टीका-यह, चित्तको कलुषताके स्वरूपका कथन है। __ क्रोध, मान, माया और लोभके तीव्र उदयसे चित्तका क्षोभ सो कलुषता है। उन्हीके ( क्रोधादिके ही) मंद उदयसे चित्तकी प्रसत्रता सो अकलुषता है। वह अकलुषता, कदाचित् कषायका विशिष्ट (विशेष प्रकारका ) क्षयोपशम होने पर, अज्ञानीको होती है, कषायके उदयका अनुसरण करने वाली परिणतिमेंसे उपयोगको असमग्ररूपसे ( अपूर्णरूपसे ) विमुख किया हो तब, मध्यम भूमिकाओंमें ( मध्यम गुणस्थानोंमें ), कदाचित् ज्ञानीको भी होती है ।।१३८॥ ___ सं० ता०-अथ चित्तकलुषतास्वरूपं प्रतिपादयति, कोधो व-वत्तमक्षमापरिणतिरूपशुद्धात्मतत्त्वसंवित्तेः प्रतिपक्षरूपभूतक्रोधादयो वा, जदा माणो-निरहंकारशुद्धात्मोपलब्धेः प्रतिकूलो यदा काले मानो, वा माया नि:प्रपंचात्मोपलंभविपरीता माया वा लोहो वा-शुद्धात्मभावनोत्थतृप्ते: प्रतिबंधको लोभो वा-चित्तमासेज्ज-चित्तमाश्रित्य, जीवस्स कुणदि खोह-अक्षुभितशुद्धात्मानुभूतेर्विपरीतं जीवस्य क्षोभं चित्तवैकल्यं करोति कलुसोति य ते बुधा वेति-तत्क्रोधादिजनितं चित्तवैकल्यं कालुष्यमिति बुधा विदंति कथयंतीति । तद्यथा तस्य कालुष्यस्य विपरीतमकालुष्यं भण्यते तच्चाकालुष्यं पुण्यास्रवकारणभूतं कदाचिदनंतानुबंधिकषायमदोदये सत्यज्ञानिनो भवति, कदाचित्पुनर्निर्विकार-स्वसंवित्त्यभावे सति दुर्ध्यानवंचनार्थं ज्ञानिनोपि भवतीत्यभिप्रायः ।।१३८।। एवं माथाचतुष्टयेन पुण्यास्रवप्रकरणं गतं । हिंदी ता० - उत्थानिका-आगे चित्तकी कलुषताका स्वरूप कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-[जदा ] जिस समय [ कोयो ] क्रोध [व] तथा [माणो] मान, [माया ] माया [व] तथा [लोभो] लोभ [ चित्तं] चित्तमें या उपयोगमें [ आसेज्ज ] प्राप्त होकर [जीवस्स ] आत्माके भीतर [खोहं] क्षोभ या, आकुलता या घबड़ाहट [कुणदि ] पैदा कर देता है । [बुधा ] ज्ञानीजन [तं] उस क्षोभको [कलुसोत्तिय ] कलुषता या संक्लेशपना ऐसा [ति ] कहते हैं।
विशेषार्थ-उत्तम क्षमा परिणतरूप शुद्धात्मतत्त्वके अनुभवसे प्रतिकूल क्रोध है ।