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The **five-fold** (Panchaastikaya) **karma** (Praabhrut 323 parinaam) which are the cause of auspicious results for the soul are **dravya punya**. The **karma** (asataavedaniyaadi vishist prakriti roop parinaam) which are the cause of inauspicious results for the soul are **dravya paap**. Thus, **karma** is described as **moort** (tangible) and **amoort** (intangible) for the soul through **vyavhaar** (conduct) and **nishchay** (certainty).
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________________ पंचास्तिकाय प्राभृत ३२३ परिणाम ) कि जिनमें जीवके शुभपरिणाम निमित्त हैं वे द्रव्यपुण्य हैं। पुद्गलरूप कर्ताके निश्चयकर्मभूत विशिष्ट प्रकृतिरूप परिणाम ( असातावेदनीयादि विशिष्ट प्रकृतिरूप परिणाम ) कि जिनमें जीवके अशुभ परिणाम निमित्त हैं वे द्रव्यपाप हैं। इस प्रकार व्यवहार तथा निश्चय द्वारा आत्माके मूर्त तथा अमूर्त कर्म दर्शाया गया ।। १३२।। सं० ता०-अथ गायापूर्वार्धन भापुण्यपापद्वयमपरार्धेन तु द्रव्यपुण्यपापद्वयं चेति प्रतिपादयति,सुहपरिणामो पुषणं असुहो पावत्ति होदि-शुभपरिणाम: पुण्यं, अशुभः पापमिति भवति । कस्य परिणाम: ? जीवरस-जीवस्य, दोपहं-द्वाभ्यां पूर्वोक्तशुभाशुभजीवपरिणामाभ्यां निमित्तभूताभ्यां सकाशत्, 'भावो-भाव: ज्ञानावरणादिपर्याय: । किंविशिष्टः । पोग्गलमेत्तो-पुद्गलमात्र; कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलपिण्डरूप: । कम्मत्तणं पत्तो-कर्मत्वं द्रव्यकर्मपर्यायं प्राप्त इति । तथाहि-यद्यपि अशुनिश्चयेन जीवेनोपादानकारणभूतेन जनितौ शुभाशुभपरिणामों तथाप्यनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नवतरद्रव्यपुण्यपापद्वयस्य कारणभूतौ यतस्ततः कारणाद्भावपुण्यपापपदार्थो भण्येते, यद्यपि निश्चयेन कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलपिण्डजनिती तथाप्यनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण जीवेन शुभाशभपरिणामेन जनितौ सद्वेवासद्वेद्यादिद्रव्यप्रकृतिरूपपुद्गलपिण्डौ द्रव्यपुण्यपापपदार्थौ भण्येते चेति सूत्रार्थः ॥१३२।। एवं शुद्धबुद्धैकस्वभावशुद्धात्मनः सकाशाद्भिन्नस्य हेयरूपस्य 'द्रव्यभावपुण्यपापद्वयस्य व्याख्याने कसूत्रेण द्वितीयस्थलं गतं । . हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे आधी गाथासे भावपुण्य तमा भाक्पारको तथा उसके आगेकी आधी गाथासे द्रव्य पुण्य और द्रव्य पाप दोनोंको बताते हैं अन्वय सहित सामान्यार्थ-( जीवस्स ) जीवका (सुहपरिणामो) शुभ भाव ( पुण्णं) पुण्यभाव है । ( असुहो) अशुभ माव ( पावं ति) पाप भाव ( हदि ) है । (दो) इन दोनों शुभ तथा अशुभ परिणामोंके निमित्तसे ( पोग्गलमेत्तो) कर्मवर्गणा योग्य पुदल पिंडरूप ( भावो) ज्ञानावरण आदि अवस्था ( कम्मत्तणं) द्रव्यकर्मपनेको ( पत्तो) प्राप्त होती है। विशेषार्थ-यद्यपि यह शुभ या अशुभ परिणाम अशुद्ध निश्चयनयसे जीवके उपादान कारण या मूल कारणसे उत्पन्न हुए हैं तथापि अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे नवीन द्रव्य पुण्य और द्रव्य पापके कारण हैं। इसीलिये इन भावोंको भावपुण्य और भावपाप कहा गया है। इसी तरह यद्यपि निश्चयनयसे ये द्रव्य पुण्य और द्रव्य पाप कर्मवर्गणाके योग्य पुद्गल पिंडसे पैदा हुए हैं तथापि अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे जीवके शुभ तथा अशुभ परिणामोंके निमित्तसे हुए हैं। इनमें साता वेदनीय आदि द्रव्य प्रकृतिरूप व असाता वेदनीय आदि द्रव्य पापरूप पुद्गल पिंड हैं। इन्हींको द्रव्यपुण्य और द्रव्यपाप पदार्थ कहते हैं । यह सूत्रका भाव है ।। १३२।।
SR No.090326
Book TitlePanchastikay
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreelal Jain Vyakaranshastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages421
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size11 MB
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