SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
The **Pancastikaya Prakrut** (265) states that the **Nischya Kala** (true time) is eternal, manifesting its true nature, while the **Vyavahara Kala** (practical time) is a synonym for a particular substance, which is destroyed as soon as it is born. Although it is fleeting, it shows its lineage (flow), so there is no fault in calling it "long-lasting" by the force of **naya** (logic). Therefore, **Aavlika**, **Palyopama**, **Sagaropama**, etc., are not prohibited as practical time. Thus, it is said here that **Nischya Kala** is eternal because it is a substance, while **Vyavahara Kala** is momentary because it is a synonym.
Page Text
________________ पंचास्तिकाय प्राकृत २६५ कथन ) किया जाता है, वह (निश्चयकाल ) वास्तव में अपने सद्भावको प्रगट करता हुआ नित्य है, और जो उत्पन्न होते ही नष्ट होता है, वह ( व्यवहारकाल ) वास्तव में उसी द्रव्यविशेषका 'समय' नामक पर्याय है। वह क्षणभंगुर होने पर भी अपनी संततिको ( प्रवाहको) दर्शाता है इसलिये उसे नयके बलसे 'दीर्घकाल तक स्थित रहने वाला' कहने में दोष नहीं है, इसलिये आवलिका, पल्योपम, सागरोपम इत्यादि व्यवहारका निषेध नहीं किया जाता। इस प्रकार यहाँ ऐसा कहा है कि निश्चयकाल द्रव्यरूप होनेसे नित्य है, व्यवहारकाल पर्यायरूप होनेसे क्षणिक है ।।१०१।। सं० ता० -अथ नित्यक्षणिकत्वेन पुनरपि कालभेदं दर्शयति,-कालोत्ति य ववदेसो काल इति व्यपदेशः संज्ञा । स च किं करोति । सम्भावपरूवगो हवदि—काल इत्यक्षरद्वयेन वाचकभूतेन स्वकीयवाच्यं परमार्थकालसद्भावं निरूपयति । क इव किं निरूपयति ? सिंहशब्द इव सिंहस्वरूपं सर्वज्ञशब्द इव सर्वज्ञस्वरूपमिति । एवं स्वकीयस्वरूपं निरूपयन् कथंभूतो भवति ? णिच्चोयद्यपि काल इत्यक्षरद्वयरूपेण नित्यो न भवति तथापि कालशब्देन वाच्यं यद्राव्यकालस्वरूपं तेन नित्यो भवतीति निश्चयकालो ज्ञातव्यः । अवरो अपरो व्यवहारकालः । स च किंरूप: । उप्पण्णप्पद्धंसी-यद्यपि वर्तमानसमयापेक्षयोत्पन्नप्रध्वंसी भवति तथापि पूर्वापरसमयसंतानापेक्षया व्यवहारनयेन, दोहंतरट्टाई-आवलिकापल्योपमसागरोपमादिरूपेण दीर्घातरस्थायी च घटते नास्ति दोषः । एवं नित्यक्षणिकरूपेण निश्चयव्यवहारकालो ज्ञातव्यः । अथवा प्रकारांतरेण निश्चयव्यवहारकालस्वरूपं कथ्यते । तथाहि-अनाद्यनिधन; समयादिकल्पनाभेदरहित: कालाणुद्रव्यरूपेण व्यवस्थितो वर्णादिमूर्तिरहितो निश्चयकालः, तस्यैव पर्यायभूतः सादिसनिधनः समयनिमिषघटिकादिविवक्षितकल्पनाभेदरूपो व्यवहारकालो भवतीति ।। १०१।। एवं निर्विकारनिजानंदसुस्थितचिच्चमत्कारमात्रभावनारतानां भव्यानां बहिरंगकाललब्धिभूतस्य निश्चयव्यवहारकालस्य निरूपणमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतं ।। हिंदी ता०-उत्थानिका-आगे फिर भी दिखलाते हैं कि काल नित्य भी है और क्षणिक भी है-- अन्वय सहित सामान्यार्थ-(कालो त्ति य) काल ऐसा जो नाम है सो ( सम्भावरूवगो) सत्तारूप निश्चय कालका बतानेवाला है, वह कालद्रव्य (णिच्चो) अविनाशी (हवदि) होता है । ( अवरो) दूसरा व्यवहारकाल ( उप्पण्णप्पद्धंसी) उपजता और विनशता रहता है ( दीहं- तरट्ठाई) तथा यह समूहरूपसे दीर्घकालतक रहनेवाला कहा जाता है। विशेषार्थ-काल जो शब्द जगतमें दो अक्षरोंका प्रसिद्ध है सो अपने वाच्यको जो निश्चय काल सत्तारूप है, उसको बताता है, जैसे सिंह शब्द सिंहके रूपको तथा 'सर्वज्ञ' शब्द सर्वज्ञके स्वरूपको बताता है। ऐसा अपने स्वरूपको बतानेवाला निश्चय कालद्रव्य
SR No.090326
Book TitlePanchastikay
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreelal Jain Vyakaranshastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages421
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy