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This is a description of the different forms of the pudgala dravya. Even though it is made up of an infinite number of atoms, the one that is made up of all of them is called a skandha. Half of that is called a skandhadesa, and half of that is called a skandhapradesa. In this way, due to the difference, there are an infinite number of skandhapradesa forms, from the dvianuka skandha. The indivisible, single-part skandha is the single atom. Again, from the combination of two atoms, there is one dvianuka skandha form. In this way, due to the combination, there are an infinite number of skandha forms. In this way, due to both difference and combination, there are an infinite number of forms.
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________________ पंचास्तिकाय प्राभृत पुद्गलद्रव्यविकल्पनिर्देशोऽयम् ।अनंतानंतपरमाण्वारब्धोऽप्येकः स्कंधो नाम पर्यायः । तदर्थं स्कंधदेशो नाम पर्यायः । तदर्धार्थ स्कंधप्रदेशो नाम पर्यायः । एवं भेदवशात् व्यणुकस्कंधादनंताः स्कंधप्रदेशपर्यायाः । निर्विभागैकप्रदेशः स्कंधस्यात्यो भेदः परमाणुरेकः । पुनरपि द्वयोः परमाण्वोः संघातादेको व्यणुकस्कंधपर्यायः । एवं संघातवशादनंता: स्कंधपर्यायाः । एवं भेदसंघाताभ्यामप्यनंता भवंतीति ।।७५।। अन्वयार्थ-( सकलसमस्तः) सकल-समस्त ( पुद्गलपिंडात्मक सम्पूर्ण वस्तु ) वह ( स्कंध: ) स्कंध है, [ तस्य अर्धं तु ] उसके अर्धको ( देशः इति भणन्ति ) देश कहते हैं, ( अर्धार्ध च ) अर्धका अर्ध वह ( प्रदेश: ) प्रदेश है ( च ) और ( अविभागी ) अविभागी वह ( परमाणु: एन ) परमाणु है। टीका-यह, पुद्गलद्रव्यके भेदोंका वर्णन है। अनंतानन्त परमाणुओंसे निर्मित होने पर भी जो एक हो वह स्कंध नामकी पर्याय है, उसकी आधी स्कंधदेश नामक पर्याय है, आधीकी स्कंधप्रदेश नामकी पर्याय है। इस प्रकार भेदके कारण द्वि अणुक स्कंधपर्यंत अनन्त स्कंधप्रदेशरूप पर्यायें होती हैं । निर्विभाग-एकप्रदेशवाला, स्कंधका अन्तिम अंश वह एक परमाणु है। पुनश्च दो परमाणुओंके संघातसे ( मिलनेसे ) एक द्विअणुक-स्कन्धरूप पर्याय होती है। इस प्रकार संघातके कारण ( द्विअणुक-स्कन्धकी भांति त्रिअणुक-स्कन्ध, चतुरणुक-स्कन्ध इत्यादि ) अनंत स्कन्धरूप पर्यायें होती हैं। इसी प्रकार भेद-संघात दोनोंसे भी अनंत ( स्कन्धरूप पर्यायें ) होती हैं |७५।। सं०ता०-अश्य पूर्वोक्तस्कंधादिचतुर्विकल्पानां प्रत्येकलक्षणं कथयति, खंदं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसोत्ति । अद्धद्धं च पदेसो-सकलसमस्तलक्षणः स्कंधो भवति तदर्भलक्षणो देशो भवति तदर्हार्द्धलखण: प्रदेशो भवति । तथाहि-समस्तोपि विवक्षितघटपटाद्यखण्डरूप: सकल इच्युत्यते तस्यानंतपरमाणुपिंडस्य स्कंधसंज्ञा भवति । तत्र दृष्टांतमाह-षोडशपरमाणुपिडस्य स्कंधकल्पना कृता तावत् । एकैकपरमाणोरपनयेन नवपरमाणुपिंडे स्थिते ये पूर्वविकल्पा गतास्तेपि सवें स्कंधा भण्यंते, अष्टपरमाणुपिंडे जाते देशो भवति । तत्राप्येकैकापनयेन पंचपरमाणुपिंडपर्यंत ये विकल्पा गतास्तेषामपि देशसंज्ञा भवति, परमाणुचतुष्टयपिंडे स्थिते प्रदेशसंज्ञा भण्यते पुनरप्येकैकापनयनेन व्यणुकस्कंधे स्थिते ये विकल्पा गतास्तेषामपि प्रदेशसंज्ञा भवति । परमाणू चेव अविभागी-परमाणुशैवाविभागीति । पूर्व भेदेन स्कंधा भणिता इदानीं संघातेन कथ्यंतेपरमाणुद्वयं संघातेन व्यणुकस्कंधो भवति त्रयाणां संघातेन त्र्यणुक इत्याद्यनंतपर्यंता ज्ञातव्याः । एवं भेदसंघाताभ्यामप्यनंता भवंतीति । अत्रोपादयेभूतात्परमात्मतत्त्वात्पुद्गलानां यद्भिन्नत्वेन परिज्ञानं तदेव फलमिति तात्पर्य ।।७५ ।।
SR No.090326
Book TitlePanchastikay
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreelal Jain Vyakaranshastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages421
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size11 MB
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