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Just as the various types of skandhas are produced from pudgala without the need for any other agent, such as the rainbow, halo, etc., similarly, when a being becomes eligible for the results of karma, various types of karma, such as jnana-avaran, etc., are also produced without the need for any other agent. ||66||
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________________ पंचास्तिकाय प्राभृत इन्द्रधनुष प्रभामंडल इत्यादि अनेक प्रकारसे पुद्गलस्कंधभेद अन्य कर्ताकी अपेक्षा बिना ही उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार अपनेको योग्य जीव-परिणामकी उपलब्धि होने पर, ज्ञानावरणादि अनेक प्रकारके कर्म भी अन्य कर्ताकी अपेक्षाके बिना ही उत्पन्न होते हैं ।।६६।। संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा ६६ अथ कर्मवर्गणायोग्यपुद्गला यथा स्वयमेव कर्मत्वेन परिणमन्ति तथा दृष्टांतमाह, जह पोग्गलदच्चाणं बहुप्पयारेहि खंदणिप्पत्ती अकहा परेहि दिट्ठा-यथा पुद्गलद्रव्याणां बहुप्रकारैः स्कंधनिष्पत्तिरकृना परैर्दृष्टा । तह कम्माणं वियाणाहि—तथा कर्मणामपि विजानीहि हे शिष्य त्वमिति । तथाहिं । यथा चंद्रार्कप्रभोपलंभे सति अभ्रसंध्यारागेंद्रचापपरिवेषादिभिर्बहुभिः प्रकारैः परेणाकृता अपि स्वयमेव पगलाः परिणमन्ति लोके तथा विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणभावनारूपाभेदरत्नत्रयात्मककारण-समयासाररहितानां जीवानां मिथ्यात्वरागादिपरिणामे सति कर्मवर्गणायोग्यपुद्गला जीवेनोपादानकारणभूतेनाकृता अपि स्वकीयोपादानकारणैः कृत्वा ज्ञानावरणादिमूलोत्तरप्रकृतिरूपैर्बहुभेदैः परिणमन्ति इति भावार्थः ।।६६।। एवं पुद्गलस्य स्वयमुपादानकर्तृत्वव्याख्यानमुख्यत्वेन गाथात्रयं गतं । हिन्दी तात्पर्य वृत्तिगाथा ६६ उत्थानिका-आये कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल किस तरह स्वयमेव कर्मरूप हो जाते हैं इसका दृष्टांत कहते हैं___ अन्वय सहित सामान्यार्थ--(जह ) जैसे ( पुग्गलदव्वाणं) पुद्गल द्रव्योंकी ( बहुप्पयारेहिं ) बहुत प्रकारसे ( खंधणिव्वत्ती) स्कंधोंकी रचना ( परेहिं ) दूसरोंसे ( अकदा ) बिना की हुई ( दिट्ठा) दिखलाई पडती है ( तह ) तैसे ( कम्माणं ) कर्मोका बन्ध होना ( वियाणाहि ) जानो। विशेषार्थ-जैसे इस लोकमें चन्द्रमा व सूर्यकी प्रभाके निमित्त होते हुए बादल व संध्याके समय लाली व इन्द्रधनुष या मंडल आदिके रूपमें नाना प्रकारसे पुद्गल वर्गणाएँ स्वयं बिना किसीकी की हुई परिणमन कर जाती हैं वैसे उन जीवोंके जो विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव थारी आत्मतत्तवके सम्यक श्रद्धान ज्ञान व चरित्रकी भावना रूप अभेद रत्नत्रयमय कारण समयसारसे रहित हैं उनके मिथ्यादर्शन व रागद्वेषादि परिणामोंके निमित्तसे कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल अपने ही उपादान कारणोंसे बिना जीवके उपादान कारणके ज्ञानावरणादि मूल व उत्तर प्रकृति रूप नाना प्रकारसे परिणमन कर जाते हैं ।। ६६ ।।
SR No.090326
Book TitlePanchastikay
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreelal Jain Vyakaranshastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages421
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size11 MB
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