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९४ : पंचस्तोत्र
अन्वयार्थ-(नाथ !) हे स्वामिन् ! (शठेन कमठन ) दुष्ट कमठ के द्वारा ( रोषात्) क्रोध से (प्राग्भारसम्भृतनभांसि) सम्पूर्ण रूप से आकाश को व्याप्त करने वाली ( यानि ) जो (रजांसि ) धूल ( उत्थापितानि) आपके ऊपर उड़ाई गई थी ( तै: तु) उससे तो (तव) आपकी (छाया अपि) छाया भी ( न हता) नहीं नष्ट हुई थी, (परम्) किन्तु ( अयमेव दुरात्मा ) यही दुष्ट ( हताशः) हताश हो ( अमीभिः) कर्मरूप रजोंसे (ग्रस्तः) जकड़ा गया था।
भावार्थ-जब भगवान् पार्श्वनाथ तपस्या कर रहे थे, तब उनके पूर्वभवके बैरी कमठ के जीवने उन पर धूल उड़ाकर भारी उपसर्ग किया था । लोकमें यह देखा जाता है कि जो सूर्य पर धूल फेंकता है, उससे सूर्य की जरा भी कान्ति नष्ट नहीं होती, पर वही धूलि फेंकने वाले के ऊपर गिरती है । श्लोक में आये हुए रज शब्द के दो अर्थ हैं-- एक धूलि, दूसरा कर्म । कमठ के जीव ने भगवान् पर उपसर्ग कर कर्मों का बन्ध किया था, इस बात को कवि ने लोक-प्रचलित उक्त उदाहरण से स्पष्ट किया है ।।३१।। यद्गर्जदूर्जितघनौघमदभ्रभीम
भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलधोरधारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दधे
तेनैव तस्य जिन दुस्तरवारिकृत्यम् ।।३२।। गर्ने महा कड़क के बिजली पड़े त्यों___यानी गिरे भयद मूसलधार होके । की दुष्ट ने कठिन दुस्तर वारि वर्मा, ___ उसके लिए वह हुई तरवारि-वर्षा ।। ३३ ।।
टोका-भो जिन ! यत् दैत्येन कमठदानवेन दुस्तरवारि दुर्द्धरपानीयं मुक्त भवान् दधे । अथ पुनस्तस्य कमठस्य तेनैव पानीयेन दुस्तरवारिकृत्यं जातं । दुस्तरं दुस्सहं यत् दुस्तरवारि दुष्टु यो हि