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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : १३ दुर्गत हैं । यह पूरा विरोध है । भला, जो जगत् का ईश्वर है, वह दरिद्र कैसे हो सकता है ? विश्वेश्वर होकर भी दुर्गत कठिनाई से जाने जा सकते हैं । इसी तरह आप अक्षरप्रकृति---अक्षर स्वभाव वाले होकर भी अलिपि लिखे नहीं जा सकते । यह विरोध है । जो क, ख आदि अक्षरों जैसा है, वह लिखा क्यों न जावेगा ? परन्तु दोनों शब्दों का श्लेष विरोध को दूर कर देता है। आप अक्षरप्रकृति-अविनश्वर स्वभाव वाले होकर भी अलिपि= आकार रहित हैं-निराकार हैं। इसी प्रकार अज्ञानवति अपि अज्ञान युक्त होने पर भी आपमें विश्वविकाशि ज्ञानं स्फुरति संसार के सब पदार्थों को जानने वाला ज्ञान रजानामान होना है, यह विरोध है । जो अज्ञानयुक्त है, उसमें पदार्थों का ज्ञान कैसा? पर इसका भी नीचे लिखे अनुसार परिहार हो जाता है--अज्ञान अवति अपि त्वयि–अज्ञानी मनुष्यों की रक्षा करने वाले आपमें हमेशा केवलज्ञान जगमगाता रहता है 11३०।। प्राग्भारसम्भृतनभांसि रजांसि रोषा
दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो
ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ।।३१।। आँधी चलाय रजशैल उड़ा-उड़ाके,
जो क्रोध से कमठ ने नभ छा दिया है। तेरी न छाँह तक नाथ ! छुई इन्होंने,
उल्टा उसी कुटिल को घबरा लिया है।। ३१ ।। टीका-भो नाथ ! शठेन मूर्खेण । कमठेनेति कमठचरसंवरनाम ज्योतिष्कदेवेन । रोषात् पूर्वोपार्जितवैरात् । यानि रजांसि उत्थापितानि तैः । स्वरजोभिः तव भगवतच्छायापि प्रतिबिम्बमपि न हतं न स्पृष्टं । अपि तु परं केवलं अमीभिः अयमेव पापीयान् कमठ एव ग्रस्त: मलिनीकृतः । कथंभूतोऽयं? हता आशा यस्य स हताश: । प्रारभारण सामस्त्येन संमृतं व्याप्त नभो यस्तानि ।।३१॥