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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ९५ तरवारिश्चंचत्खड्गस्तद्वत्कृत्यं यस्य तत् एवंविधं समजनि । कथंभूतं दुस्तरवारि? गर्जिता ऊर्जिता महत्तरा ये घना मेघास्तेषां ओघा यस्मि.. स्तत् । मुसलवन्मांसलाः स्थूला घोरां भयदा धारा यस्मिस्तत् १३३२।।
अन्वयार्थ (अथ) और ( जिन ) हे जिनेश्वर ! ( दैत्येन ) उस कमठ ने ( गर्जदूर्जितघनौघम्) खूब गर्ज रहे हैं बलिष्ठ-मेघसमूह जिसमें ( भ्रश्यत्तडित्) गिर रही है बिजली जिसमें और ( मुसलमांसलघोरधारम्) मूसल के समान है बड़ी मोटी धारा जिसमें ऐसा तथा ( अदभ्रभीमम् ) अत्यन्त भयङ्कर ( यत् ) जो ( दुस्तरवारि) अथाह जल (मुमतम् ) धर्माला या दोन उम् जलवृष्टि से ( तस्य एव) कमठ ने ही अपने लिये (दुस्तरवारिकृत्यम् ) तीक्ष्ण तलवार का काम अर्थात् व्रण कर लिया था।
भावार्थ हे भगवन् ! आप पर मूसलाधार पानी वर्षा कर कमठके जीवने उपसर्ग किया था, उससे आपका क्या बिगड़ा ? परन्तु उसीने अपने लिये 'दुस्तरवारिकृत्ये ' दुष्ट तलवारका कार्य अर्थात् घाव कर लिया—ऐसे कर्मोका बन्ध किया जो तलवारके समान दुःखदायी हुए थे। श्लोकमें 'दुस्तरवारि' शब्द दो बार आया है, उनमें से पहलेका अर्थ कठिनाईसे तरने योग्य जल है, और दूसरेका अर्थ दुष्ट तरवारि-तलवार है ।। ३२३॥ ध्वस्तोर्ध्वकेशविकृताकृतिमर्त्यमुण्ड
प्रालम्बभृद्भयदवक्त्रविनिर्यदग्निः । प्रेतत्रजः प्रतिभवन्तमपीरितो यः
सोऽस्याऽभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ।।३३।। अंगार को उगलता पर-मुंड धारे,
सूखे कुकेश, विकराल शरीरवाला। जो प्रेत-वृन्द तव नाथ ! समीप भेजा,
उसको हुआ वह भवों-भव दुःखदायी ।। ३३ ।। टीका– भो परमेश्वर ! यः प्रेतव्रजो भूतसमूहः भवंतं श्रीमंत प्रत्यपि । इंरितः प्रेरितः । स प्रेतव्रजः । अस्य कमठस्य । प्रतिभवं भवं