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________________ ९६ : पंचस्तोत्र प्रति । भवस्य संसारस्य । दुःखाना हेतुः । अभूत् बभूव । प्रेतानां व्रजः प्रेतव्रजः | ध्वस्ता विस्तारिता ये ऊर्ध्वकेशास्तैर्विकृता विकारिण्य आकृतयो येषां ते ध्वस्तोवंकेशविकृताकृतय एवंविधा ये मस्तेिषां मुण्डानि कपालानि लेषां प्रालम्बमालां बिभर्तीति । पुनः कथं प्रेतव्रजः? भयदवक्त्रविनियंदग्निः भयदायि यद्वक्त्रं तस्माद्विनिर्यन्त नि:सरन्तोऽग्नयों यस्य सः ।।३३।। अन्वयार्थ—(तेन अनुसरेण ) उस असुर के द्वारा ( ध्वस्तोर्ध्वकेशविकृताकृतिमर्त्यमुण्डप्रालम्बभृद् ) मुंडे हुए तथा विकृत आकृतिवाले नर कपालोंकी मालाको धारण करने वाला और (भयदवक्त्रविनिर्यदग्निः ) जिसके भयङ्कर मुखसे अग्नि निकल रही है, ऐसा ( यः ) जो ( प्रेतव्रजः ) पिशाचोंका समूह ( भवन्तम् प्रति ) आपके प्रति (ईरितः , प्रेरित किया गया था.--दौड़ाया गया था (सः ) वह ( अस्य ) उस असुरको (प्रतिभवम् ) प्रत्येक भवमें { भवदुःखहेतुः ) संसार के दुःखोका कारण ( अभवत् ) हुआ था। भावार्थ हे भगवन् ! कमठके जीवने आपको तपस्यासे विचलित करनेके लिये जो पिशाच दौड़ाये थे, उनसे आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं हुआ, परन्तु उस पिशाचको ही भारी कर्मबन्ध हुआ, जिससे उसे अनेक भवोंमें दुःख उठाने पड़े ।।३३।। धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्य माराधयन्ति विधिवद्विधुतान्यकृत्याः । भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मलदेहदेशाः पादद्वयं तव विभो ! भुवि जन्यभाजः ।।३४।। रोमाञ्च गद्गद प्रफुल्लित देह होके, आराधना तव पदाम्बुज की महेश ! जो भक्तिपूर्वक करें विधि से विकाल, वे धन्य हैं जगत में जन देहधारी ।। ३४ ।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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