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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ११ विपाक उदयस्तेन शून्यः । घटपक्षे कर्मवद्विपाकः पचनं तेन शून्यो न : अत्र श्लेषालंकार: ।। २९ ।। __अन्वयार्थ-- ( नाथ !) हे स्वामिन् ! (त्वम्) आप ( जन्मजलधेः) संसाररूप समुद्रसे (विपराङ्मुखः अपि सन् ) पराङ्गमुख होते हुए भी (यत्) जो (निजपृष्ठलग्नान् ) अपने पीछे लगे हुए अनुयायी ( असुमतः) जीवों को (तारयसि ) तार देते हो, ('तत्') वह (पार्थिवनृपस्य सतः) राजाधिराज अथवा मिट्टी के पके हुए घड़े की तरह परिणमन करने वाले ( तव)
आपको (युक्तम् एव ) उचित ही है। परन्तु (विभो ! ) हे प्रभो ! (तत् चित्रम् ) वह आश्चर्यकी बात है (यत्) जो आप ( कर्मविपाक-शून्यः असि) कर्मोके उदयरूप पाक क्रियासे रहित हो।
भावार्थ-जिस तरह घड़ा पानीमें अधोमुख होकर अपनी पीठ पर स्थित लोगोंको नदी-नाले आदिसे पार कर देता है । उसी तरह आप यद्यपि राग न होनेसे संसार-समुद्रसे पराङ्मुख रहते हैं, तथापि अपने अनुयायियोंको उससे पार लगा देते हैं—मोक्ष प्राप्त करा देते हैं । पर जब घड़ा अग्निसे पकाया हुआ हो तभी पानी में तैर कर दूसरों को पार करता है । कच्चा घड़ा पानीमें गल कर घुल जाता है। किन्तु आप पाक रहित हो, यह आश्चर्य की बात है । उसका परिहार यह है कि, आप कर्मोके उदय से रहित हैं। श्लोक में आये हुए विपाक शब्दके दो अर्थ हैं—आगसे किसी कोमल मिट्टीकी वस्तुका कठोर होना और कर्मोंका उदय आना ||२९॥ विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वं
किंवाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश ! अज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतुः ।।३०।।