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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ८९
और माणिक्य, सुवर्ण और चाँदी के बने हुए तीन कोट हैं, वे मानों आपकी कान्ति, प्रताप और यशका समूह हैं, जो कि तीनों जगतमें फैलकर पिण्डरूप हो गया है ।
दिव्यत्रजो जिन नमस्त्रिदशाधिपानामुत्सृज्य उत्तरग्निपि मौलिबन्धान् । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव ।। २८ ।।
देव प्रणाम करते तव दिव्यमाला, रत्नों जड़े मुकुट को तजके उन्होंने केतेरा पदाश्रय करे, रमते नहीं हैं
अन्यत्र या सुमन पाकर संग तेरा ॥ २८ ॥
टीका - भो जिन ! दिव्यस्रज: मनोज्ञपुष्पमालाः । नमस्त्रिदशाधिपानां प्रणमत्त्रिदशेन्द्राणां । रत्नरचतानपि मौलिबन्धान् रत्नखचितान् किरीटान् । उत्सृज्य । भवतः परमेश्वरस्य । पादौ श्रयंति। नमन्तश्च ते विदशाधिपाश्च तेषां । रत्नैः रचितास्तान । मौलिनां बन्धाः मौलिबन्धास्तान् । यदि वा युक्तोऽयमर्थः । सुमनसः प्राणिनः । त्वत्संगमे त्वत्समीपे । सति परत्र अन्यत्र । न रमन्त एव । इति स्थूलार्थः ||२८||
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अन्वयार्थ -- ( जिन ) वे जिनेन्द्र (दिव्यत्रज) दिव्य पुरुषों की मालाएँ ( नमस्त्रिदशाधिपानाम् ) नमस्कार करते हुए इन्द्रों के ( रत्नरचितान् अपि मौलिबन्धान् ) रत्नोंसे बने हुए मुकुटोंको भी ( विहाय ) छोड़कर ( भवतः पादौ श्रयन्ति ) आपके चरणों का आश्रय लेती हैं। (यदि वा ) अथवा ठीक है कि ( त्वत्सङ्गमे 'सति' ) आपका समागम होने पर ( सुमनसः ) पुष्प अथवा विद्वान् पुरुष (अपरत्र ) किसी दूसरी जगह (न एव रमन्ते ) नहीं रमण करते हैं 1
भावार्थ - श्लोक में आये हुए सुमनस् शब्द के दो अर्थ हैं