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________________ ८८ : पंचस्तोत्र धरकर आपकी सेवा में अपना अधिकार वापिस चाहनेके लिये उपस्थित हुआ है । छत्रोंमें जो मोती लगे हुए हैं, वे मानों चन्द्रमाके परिवार-स्वरूप तारागण हैं। यह 'छत्रत्रय' प्रातिहार्य का वर्णन है ।।२६।। स्वेन प्रपूरितजगत्रयपिण्डितेन कान्तिप्रतापयशसामिव सञ्चयेन । माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन । सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ।।२७।। चाँदी, सुवर्ण, मणि-माणिक के बनाये, हैं तीन कोट भगवन् ! चहुँ ओर तेरे । कीर्ति-प्रताप द्युति के समुदाय ने ही. मानो विभो ! त्रिजगती तल छा दिया है ।। २७ ।। टीका-भो भगवन् ! शालत्रयेण प्राकारत्रयेण । त्वं अभित; समन्तात् । विभासि शोभसे । हाभूतेन सा ? पाणिस्यानि , हेमानि च रजतानि च माणिक्यहेमरजतानि तैः निर्मितं तेन । केनेव कांतिप्रतापयशसां संचयेनेव । यथा स्वेन कांतिप्रतापयशसां संचयेन त्वं विभासि । कांतिश्च प्रतापश्च यशश्च कांतिप्रतापयशांसि तेषां । कथंभूतेन संचयेन ? प्रपूरितं च जगत्त्रयं च प्रपूरितजगत्त्रयं प्रपूरितजगत्त्रयेण पिंडितः एकीभूतस्तेन । इति तात्पर्यार्थः ।।२७।। अन्वयार्थ—( भगवन् ) हे भगवन् ! आप ( अभितः) चहुँ ओर (प्रपूरितजगत्त्रयपिण्डितेन) भरे हुए जगत्त्रयके पिण्ड अवस्थाको प्राप्त (स्वेन कान्तिप्रतापयशसाम् सञ्चयेन इव) अपने कान्ति प्रताप और यशके समूहके समान शोभायमान { माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन) माणिक्य, सुवर्ण और चाँदीसे बने हुए । ( सालत्रयेण ) तीनों कोटोंसे ( विभासि) शोभायमान होते हो। भावार्थ- हे भगवन् ! समवसरण भूमिमें जो आपके चारों
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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