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८६ : पंचस्तोत्र
सभी हो जाते हैं । इस श्लोक में राग पद दो अर्थों वाला हैअनुराग प्रेम स्नेह और दूसरा लालिमा ललाई ।। २४ ।। भो भोः प्रमादमवधूय भजध्वमेनमागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम् । एतन्निवेदयति देव 'जगत्त्रयाय मध्ये नदन्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते ।। २५ ।।
जीवों ! प्रमाद तज दो, भज ईश को लो.
है मार्ग-दर्शक, यहाँ बस पास आओ
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ये बात तीन जगको बतला रहा है
आकाश बीच सुर- दुन्दुभि - नाद तेरा ।। २५ ।। टीका - भो देव ! अहं एवं मन्ये एवं सम्भावयामि । ते तव । सुरदुन्दुभिः देवपटहः | अभिनभः नभः समन्तात् । नदन् । जगत्त्रयाय त्रैलोक्याय एतन्निवेदयति । सुराणां दुन्दुभिः सुरदुन्दुभिः । एतत् किं ? भो भो जनाः प्रमादं अवधूय आलस्यं परित्यज्य । आगत्य समेत्य । एवं श्रीपार्श्वनाथं । भजध्वं सेवध्वं । कथंभूतं एवं ? निवृतिपुरी प्रति सार्थवाहम् ।।२५।।
अन्वयार्थ - ( देव !) हे देव ! (मन्ये) मैं समझता हूँ कि ( अभिनभः) आकाशमें सब ओर (नदन् ) शब्द करती हुई (ते) आपकी (सुरदुन्दुभिः) देवोंके द्वारा बजाई गई दुन्दुभि ( जगत्त्रयाय ) तीन लोकोंके जीवोंको ( एतत् निवेदयति ) यह सूचित कर रही है कि ( भो भोः ) रे रे प्राणियों ! ( प्रमादम् अवधूय ) प्रमादको छोड़कर (निर्वृतिपुरीम् प्रति सार्थवाहम् ) मोक्षपुरीको ले जानेमें अगुवा ( एवं ) इन भगवान्को ( आगत्य ) आकर ( भजध्वम् ) भजो ।
भावार्थ- हे प्रभो ? आकाशमें जो देवोंका नगाड़ा बज रहा है, वह मानों तीन लोकके जीवों को चिल्ला-चिल्लाकर सचेत कर रहा है कि जो मोक्षनगरीकी यात्राके लिए जाना चाहते हैं, वे