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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ८५ उद्गच्छता तय शितिद्युतिमण्डलेन
लुप्तवच्छदच्छविरशोकतरुर्बभूव । सांनिध्यतोऽपि यदि तव वीतराग !
नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ।।२४।। भामंडल प्रबल जो तव नाथ ! फैला,
भाया अशोक तरु पत्र छटा लुटाके । तेरे समीप रह चेतन कौन है जो,
हे वीतराग ! धर ले न विरक्तता को? । २४ ।। टीका-भो वीतराग ! अशोकतरुः । तव भगवतः । उद्गच्छत्ता उदीयमानेन शितिद्युतिमण्डलेन उज्ज्वलभामण्डलेन । लुप्तच्छदानां पत्राणां छवि: शोभा । यस्य स एवंविधो बभूव । शिति च तद्युतिमण्डलं च शित्तिद्युतिमण्डलं तेन । यदि वा युक्तोश्यमर्थः । तव सांनिध्यतोऽपि । कः सचेतनोऽपि सुज्ञोऽपि । नीरागतां रागेच्छारहिततां न व्रजति ? अपि तु व्रजतीत्याशयः । चेतनेन सह वर्तमानः सचेतनः ।।२४।।
अन्वयार्थ (उद्गच्छता) स्फुरायमान (तव) आपके (शितिद्युतिमण्डलेन ) श्याम प्रभामण्डल के द्वारा ( अशोकतरुः) अशोकवृक्ष (लुप्तच्छदच्छविः) कान्तिहीन पत्रोंवाला (बभूव) हो गया, ( यदि वा ) अथवा ( वीतराग ! ) हे राग-द्वेष रहित देव ! (तब सान्निध्यतः अपि) आपकी समीपता मात्र से ही (क: सचेतनः अपि) कौन पुरुष सचेतन होकर भी ( नीरागताम् ) राग ललाई से रहितपने अथवा अनुराग के अभाव को ( न व्रजति) नहीं प्राप्त होता? अर्थात् प्राप्त होता है।
भावार्थ—बह भामण्डल' प्रातिहार्य का वर्णन है। हे भगवन् ! आपकी श्यामल कान्ति के संसर्ग से अशोक वृक्ष की लालिमा दब गई, सो ठीक ही है वीतराग (ललाई सहित, दूसरे पक्ष में स्नेह रहित) के समीप से कौन सचेतन-प्राणी वीतराग (ललाई रहित, दूसरे पक्ष में स्नेह रहित ) नहीं हो जाता ? अर्थात्