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________________ ८४ : पंचस्तोत्र श्याम गभीरगिरमुज्ज्वलहेमरत्न सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम् । आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चे श्चामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम् ।।२३।। तू श्याम है, तव गिरा सुगभीर, तेरा सिंहासन प्रचुर रत्न-सुवर्णवाला। देखे तुझे प्रणयि भव्य मयूर नीके, मानो सुमेरु-सिरपै नव मेघ गाजे ।। २३ ।। टीका–भो विभो ! भव्यशिखण्डिनः भव्यलक्षणा: शिखण्डिनो मयूराः इह लोके त्वां । रभसेन वेगेन । आलोकयति । भव्या एव शिखण्डिनः भव्यशिखण्डिनः। कीदृशं त्वां? गभीरा तत्त्वार्थ अत्यन्तमगाधा धीर्यस्य स तं । पुनः कीदृशं त्वां ? उज्ज्वलैर्निर्मलहेमरत्नः खचिते सिंहासने तिष्ठतीति तं । पुनः कीदृशं त्वां ? चामीकराद्रिदिशालि मेरोः अंगे। उन्द लम्जुमहमिल नवमेघमिवोत्प्रेक्षा । चामीकराद्रेः शिरस्तस्मिन् । नवश्चासौ अम्बुबाहश्च तम् ।।२३।। __ अन्वयार्थ-(इह) इस लोक में (श्यामम् ) श्याम वर्ण (गभीरगिरम् ) गम्भीर दिव्यध्वनि युक्त और ( उज्ज्वलहेमरत्नसिंहासनस्थम्) निर्मल सुवर्ण के बने हुए रत्नजड़ित सिंहासन पर स्थित ( त्वाम्) आपको ( भव्यशिखण्डिनः) भव्य जीवरूपी मयूर ( चामीकराद्रिशिरसि) सुवर्णमय मेरुपर्वत की शिखर पर ( उच्चैः नदन्तम् ) जोर से गर्जते हुए ( नवाम्बुवाहम् इव) नूतन मेघ की तरह ( रभसेन) उत्कण्ठापूर्वक ( आलोकयन्ति ) देखते हैं। भावार्थ-हे प्रभो ! जिस तरह सुवर्णमय मेरु पर्वत उमड़े हुए गर्जना करने वाले काले मेघ को देखकर मयूरों को बहुत ही आनन्द होता है, उसी तरह दिव्यध्वनि करते हुए तथा सोने के सिंहासन पर विराजमान श्यामवर्ण वाले आपके दर्शन कर भव्यजीवों को अत्यन्त आनन्द होता है । उनका मन मयूर की तरह नाचने लगता है । यह 'सिंहासन' प्रातिहार्य का वर्णन है ।।२३।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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