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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ८३ हे नाथ ! पूर नभ के उड़ते हुए ये:
मानो यही कह रहे सुर चामरौन"जो हैं प्रणाम करते इस नाथ को हैं,
वे शुद्ध भाव बन के गति उच्च पाते" ॥२२॥ टीका.... मा स्वामिन् ! अक्ष एवं भन्य इति सम्भावयामि । इतीति किं ? शुचय उज्ज्वला: । सुरचामरौधा देवानां चतुःषष्टिचामरयुग्मानि । सुदूरं अतिसमीपं । यथा स्यात्तथा अवनम्य अल्पं मस्तकोपरि निपत्य । समुत्पतन्तः सन्तः । इति वदन्ति इति भणति । इतीति किं ? ये पुरुषा अस्मै मुनिपुंगवाय समवसरणविराजमानतीर्थंकर श्रीपाश्वनाथाय । नतिं नमस्कारं । विदधते कुर्वते । ते भव्याः नूनं खलु इति सत्ये । शुद्धभावा: सन्त: ऊर्ध्वगतयो भवंति । यथा वयं चामरौधा:अवनम्राः सन्तः ऊध्वंगतयस्तथा भवंतः अपि भवंति । शुद्धभावः सम्यक्त्वं येषां ते ।।२२।।
अन्वयार्थ (स्वामिन् ) हे प्रभो ! ( मन्ये ) मैं मानता हूँ कि (सुदूरम् ) नीचे को बहुत दूर तक (अवनम्य ) नम्रीभूत होकर ( समुत्पतन्तः) ऊपर को आते हुए (शुचयः) पवित्र (सुरचामरौघाः ) देवों के चमर-समूह ( वदन्ति ) लोगों से कह रहे हैं कि ( ये ) जो ( अस्मै मुनिपुङ्गवाय) इन श्रेष्ठ मुनि को (नतिम् ) नमस्कार (विदधते) करते हैं, (ते) वे (नूनम् ) निश्चय से (शुद्धभावाः ) विशुद्ध परिणाम वाले होकर (ऊर्ध्वगतयः) ऊर्ध्वगति वाले ('भवन्ति' खलु) हो जाते हैं, अर्थात् स्वर्ग-मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ-हे भगवन् ! जब देव लोग आप पर चंवर ढोरते हैं, तब वे चँवर पहले नीचे की ओर झुकते हैं और बाद में ऊपर को जाते हैं, सो मानों लोगों से यह कहते हैं कि भगवान् को झुककर नमस्कार करने वाले पुरुष हमारे समान ही ऊपर को जाते हैं, अर्थात् स्वर्ग मोक्ष को पाते हैं। यह चमर' प्रातिहार्य का वर्णन है ।।२२।।