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४ पंचस्तोत्र
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तस्यामंत्रणं । समुद्यता मतिर्यस्य सः । कथंभूतोऽहं विगता त्रपा लज्जा यस्य सः । बालं विष्य इति किं परित्यस्यान्य को मतिमान्पुमान् । 'जलसंस्थित जले प्रतिबिम्बी भूतमिन्दुबिम्बं चन्द्रमण्डलं । सहसा रभमा । ग्रहीतुमुपादातुम् इच्छति वाञ्छेत् न कोऽपीत्यर्थः ॥ ३ ॥
अन्वयार्थ -- ( विबुधार्चितपादपीठ ! ) देवों के द्वारा पूजित है पादपीठ - पैर रखने की चौकी जिनकी ऐसे हे जिनेन्द्र ! (विगतप: ) लज्जा-रहित ( अहम् ) मैं (बुद्ध्या विना अपि ) बुद्धि के बिना भी ( स्तोतुम् ) स्तुति करने के लिये ( समुद्यतमतिः 'भवामि' ) तत्पर हो रहा हूँ, सो ठीक ही हैं क्योंकि ( बालम् ) बालक - पूर्ख को (विहाय ) छोड़कर (अन्य ) दूसरा (कः जनः ) कौन मनुष्य (जलसंस्थितम् ) जल में प्रतिबिम्बित ( इन्दुबिम्बम् ) चन्द्रमण्डल को (सहसा ) बिना विचारे ( ग्रहीतुम् ) पकड़ने की ( इच्छति ) इच्छा करता है ? अर्थात् कोई भी नहीं ।
भावार्थ- हे जिनेन्द्र ! जिस तरह लज्जा रहित बालक जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा को पकड़ना चाहता है, उसी तरह लज्जा रहित मैं बुद्धि के बिना भी आपकी स्तुति करना चाहता हूँ ।। ३ ।।
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! शशाङ्ककान्तान्
कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्तकालपवनरोद्धतनक्रचक्रं
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को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।। ४ ।। होवे बृहस्पति समान सुबुद्धि तो भी,
है कौन जो गिन सके तव सद्गुणों को ।
कल्पान्त-वायुवश सिन्धु अलंघ्य जो है,
है कौन जो तिर सके उसको भुजा से || ४ |
टीका - भो गुणसमुद्र ! कः पुमान् । ते तव । गुणान् वक्तुम् यथार्थतया प्रतिपादयितुम् । क्षमः समर्थोऽस्ति । कथंभूतः सन् ? बुद्धधा कृत्वा सुरगुरुप्रतिमोऽपि सन् सुरगुरुणा वृहस्पतिना प्रतिमीयतेऽसौ ।