________________
भक्तामर स्तोत्र : ३ विस्तार को नष्ट करने वाले और (युगादौ ) युग के प्रारम्भ में ( भवजले ) संसार रूप जल में (पतताम् ) गिरते हुए (जनानाम् ) प्राणियों के ( आलम्बनम् ) आलम्बन - सहारे ( जिनपादयुगम् ) जिनेन्द्र भगवान् के दोनों चरणों को (सम्यक् ) अच्छी तरह से ( प्रणम्य ) प्रणाम करके ( यः ) जो (सकलवाङ्मयतत्त्वबोधात् ) समस्त द्वादशांग के ज्ञान से ( उद्भूतबुद्धिपटुभिः ) उत्पन्न हुई बुद्धि के द्वारा चतुर (सुरलोकनाथैः ) इन्द्रों के द्वारा (जगत्त्रितयचिसहर: ) तीनों लोकों के प्राणियों के चित्त को हरने वाले और ( उदारैः ) उत्कृष्ट ( स्तोत्रैः ) स्तोत्रों से (संस्तुतः ) स्तुत किये गये थे (तम् ) उन (प्रथमम् ) पहले (जिनेन्द्रम् ) जिनेन्द्र ऋषभनाथ की ( अहम् अपि ) मैं भी (किल ) निश्चय से ( स्तोष्ये) स्तुति करूँगा ।
भावार्थ- देवों के द्वारा पूजित, पाप-समूह को नष्ट करने वाले और हित का उपदेश देकर प्राणियों को संसार - समुद्र से निकालने वाले जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को नमस्कार कर मैं भी उन भगवान् ऋषभनाथ की स्तुति करूंगा, जिनकी स्तुति स्वर्ग के इन्द्रों ने मनोहर स्तोत्रों के द्वारा की थी ।। १-२ ।। बुद्ध्या विनापि विबुधार्चितपादपीठ स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रयोऽहम् । बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ।। ३ ।।
हूँ बुद्धिहीन फिर भी बुध - पूज्यपाद,
तैयार हूँ स्तवनको निर्लज्ज होके ।
है और कौन जगमें तज बालकों जो,
लेना चहे सलिल-संस्थित चन्द्र-बिम्ब ॥ ३ ॥ टीका -- हे विबुधार्चितपादपीठ ! अहं मानतुंगः कविः । बुद्ध्या विनापि मतिहीनोऽपि । त्वां भगवन्तम् । स्तोतुं समुद्यतममितवंर्ते : विबुधैश्चतुर्णिकायाऽमरैः अर्चितं पूजितं पादयोः पीठं सिंहासनं यस्य स