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भक्तामर स्तोत्र : ५ कथंभूतान् गुणान् ? शशांककान्तान् शशांक: शरच्चन्द्रस्तद्वत्कान्तान्मनाज्ञान् अथवा उज्ज्वलान् । स्वस्याशक्यतां दृष्टान्तेन द्रढयति । वा इति पक्षान्तरे । कः पुमान् भुजाभ्यामम्बुनिधि तरीतुमलं समर्थो भवति । न कोऽपीत्यर्थः । कथंभूतमम्बुनिधि कल्पान्तकालस्य प्रलयकालस्य ये पवना वायवस्तरुद्धता प्रकटीभूता ये नक्रा: पाठीना मत्स्यादयो जीवास्तेषां समूहा यस्मिन् स तम् ।। ४ ।।।
अन्वयार्थ- ( गुणसमुद्र ! ) हे गुणों के समुद्र ! ( बृद्धया ) बुद्धि के द्वारा ( सुरगुरुप्रतिमः अपि) बृहस्पति के सदृश भी (कः) कौन पुरुष (ते) आपके (शशाङ्ककान्तान् ) चन्द्रमा के समान सुन्दर (गुणान् ) गुणों को ( वक्तुप) कहने के लिये ( क्षमः ) समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं । (वा) अथवा ( कल्पान्तकालपवनोदतनक्रचक्रम् ) प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगर-मच्छों का समूह जिसमें ऐसे ( अम्बुनिधिम् ) समुद्र को (भुजाभ्याम् ) भुजाओं के द्वारा ( तरीतुम् ) तैरने के लिये ( कः अलम्) कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं।
__ भावार्थ हे नाथ ! जिस तरह प्रलयकाल की तीक्ष्ण वायु से लहराते और हिंसक जल-जन्तुओं से भरे हुए समुद्र को कोई भुजाओं से नहीं तैर सकता, उसी तरह कोई मनुष्य अत्यन्त बुद्धिमान् होने पर भी आपके निर्मल गुणों का वर्णन नहीं कर सकता ।। ४ ।। सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश !
कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ।। ५ ।। हूँ शक्तिहीन फिर भी करने लगा हूँ,
तेरो प्रभो, स्तुति हुआ वश भक्ति के मैं । क्या मोह के वश हुआ शिशु को बचाने,
है सामना न करता मृग सिंह का भी ।। ५ ।।