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६ : पंचस्तोत्र
टीका--हे मुनीश्वर, भो योगीश्वर ! सोऽहं मानतुंगाचार्यः । तथापि तथाविधः सन् । तव परमेश्वरस्य । भक्तिवशात् भक्त्या लीन: सन् । विगतशक्तिरपि स्तवं कर्तुमुद्यत प्रवृत्तः । विगता शक्तिरस्य । स्वस्य धाष्टर्यतां दृष्टान्तेन द्रढयति । मृगो हरिणः । प्रीत्या स्नेहेन । आत्मवीर्य स्वपराक्रममविचार्य । निजशिशोः स्वसन्तानस्य । परिपालनार्थ रक्षार्थ । मृगेन्द्र सिंह । किन्नाभ्येति, किन्न सम्मुखीभवति? अपि तु सम्मुखीभवतीत्यर्थ: ।। ५ ।। ___अन्वयार्थ—(मुनीश ) हे मुनियों के ईश !(तथापि ) तो भी (सः अहम्) मैं-अल्पज्ञ (विगतशक्तिः अपि सन् } शक्ति रहित होता हुआ भी ( भक्तिवशात् ) भक्ति के वश से (तष) आपकी (स्तवम् ) स्तुति ( कर्तुम् ) करने के लिये ( प्रवृत्तः ) तैयार हुआ हूँ, (मृगः ) हरिण ( आत्मवीर्यम् अविचार्य ) अपनी शक्ति का विचार न कर केवल ( प्रीत्या ) प्रेम के द्वारा ( निजशिशोः । अपने बच्चे की ( परिपालनार्थम्) रक्षा के लिए (किम् ) क्या ( मृगेन्द्रम् न अभ्येति ) सिंह के सामने नहीं जाता ? अर्थात् जाता है ।
भावार्थ हे भगवन् ! जिस तरह हरिण शक्ति न रहते हुए भी मात्र प्रीति से बच्चे की रक्षा के लिये सिंह का सामना करता है. उसी तरह मैं भी शक्ति न होने पर भी सिर्फ भक्ति से आपका स्तवन करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ ।। ५ ।।
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्रचारुकलिकानिकरैकहेतु ।। ६ ।। हूँ अल्पबुद्धि बुध-मानव की हँसी का.
हूँ पात्र, भक्ति तव है मुझको बुलाती । जो बोलता मधुर कोकिल है मधू में.
हैं हेतु आम्र-कलिका बस एक उसका ।।६।।