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८० : पंचस्तोत्र अशोक = शोक रहित ( भवति) हो जाता है । (वा) अथवा ( दिनपतौ अभ्युद्गते सति') सूर्य के उदित होने पर ( समहीरुहः अपि जीवलोकः ) वृक्षों सहित समस्त जीवलोक (किम् ) क्या (विबोधम् ) विकाश = विशेष ज्ञान को ( न उपयाति ) प्राप्त नहीं होते ? अर्थात् होते हैं।
भावार्थ-~-इस श्लोक में अशोक शब्द के दो अर्थ होते हैंएक अशोक वृक्ष और दूसरा शोक रहित । इसी तरह विबोध शब्द के भी दो अर्थ हैं- एक विशेष ज्ञान और दूसरा हराभरा तथा प्रफुल्लित होना । हे भगवन् ! जब आपके पास में रहने वाला वृक्ष भी अशोक हो जाता है, तब आपके पास रहने वाला मनुष्य अशोक शोक रहित हो जावे तो इसमें क्या आश्चर्य है ? यह 'अशोक वृक्ष' प्रातिहार्य का वर्णन है ।।१९।। चित्रं विभो ! कथमवाङ्मुखवृन्तमेव
विष्वक्पतत्यबिरला सुरपुष्पवृष्टिः । त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश !
गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि ।।२०।। आश्चर्य किसतरा सुर-पुष्प-वृष्टि.
स्वामिन् ! निरन्तर अवाङ्मुख हो रही है। है या तुझे सुमन ये जब देख पाते,
जाते तभी सफल बन्धन नाथ ! नीचे ।।२०।। टीका- हे विभो ! सुरपुष्पवृष्टि अवाङ्मुखवृन्तमेव यथा स्यात्तथा विष्वक् समन्तात् कथं पतत्ति? एतन्महच्चित्रं अवाङ्मुखानि अधोमुखानि वृतानि प्रसवबन्धनानि यत्र क्रियायां तत् वृंत प्रसवबन्धनमित्यमरः । सुराणां देवानां पुष्पवृष्टिः । न विरला अबिरला निविड़ा चेत्यर्थः । यदि वा युक्तोऽयमर्थः । नूनं निश्चितं । भो मुनीश ! सुमनमां प्राणिनां त्वद्गोचरे त्वत्सांनिध्ये । बन्धनानि अध एव गच्छन्ति । यथासुमनसां पुष्पाणां अधोमुखेन वृंतपतनं तथा बन्धनानि कर्मबन्धनान्यपि