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कल्याणमन्दिर स्तांत्र : ८१ सुमनसां प्राणिनां अधो गच्छन्तीति भावः । सुष्टु मनो येषां ते सुमनसस्तेषां । पुष्पं सुमनस फुल्लमिति धनंजयः ।।२०।।
अन्वयार्थ (विभो !) हे प्रभो ! (चित्रम् ) आश्चर्य है कि (विश्वक् ) सब ओर ( अविरला ) व्यवधान रहित (सुरपुष्यवृष्टिः ) देवों क द्वारा की हुई फूलों की वर्षा ( अवाङ्मुखवृन्तम् ) एवं ('यथा स्थात्तथा') नीचे को बन्धन करके ही ( कथम् ) क्यों ( पतति ) पड़ती है ? (यदि वा ) अथवा ठीक है कि ( मुनीश ! ) हे मुनियों के नाथ ! ( त्वद्गोचरे) आपके समीप (सुमनसाम् ) पुष्यों अथवा विद्वानों के ( बन्धनानि) डंठल अथवा कर्मों के बन्धन (नूनम् हि ) निश्चय से ( अधः एव गच्छन्ति ) नीचे को ही जाते हैं।
भावार्थ—इस श्लोक में सुमनस् शब्द के दो अर्थ हैं—एक फूल और दूसरा विद्वान् या देव । इसी तरह बन्धन शब्द के भी दो अर्थ हैं. एक फूलों का बन्धन-डण्ठल और दूसरा कर्मों के प्रकृति आदि चार तरह के बन्ध । हे भगवन् ! जो आपके पास रहता है, उसके कर्मों के बन्धन नीचे चले जाते हैं-- नष्ट हो जाते हैं । इसीलिये तो आपके ऊपर जो फूलों की वर्षा होती है, उनमें फूलों के बन्धन नीचे होते हैं और पाँखुरी ऊपर । यह पुष्पवृष्टि' प्रातिहार्यका वर्णन है ।।२०।। स्थाने गभीरहदयोदधिसम्भवायाः
पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परमसंमदसङ्गभाजो __ भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम् ।।२१।। तेरी गिरा अमृत है। यह जो कहाता.
है योग्य क्योंकि हृदयोदधि से उठी हैपोके तथा मद भरे जन भी उसे हैं,
होते तुरन्त अजरामर सौख्य-धाम ।। २१ ।।