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________________ कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ७७ तेरे समान जगदीश ! प्रभाववाला, आत्मा बने भज तुझे तज भिन्नभाव । पीयूष भावधर मंत्रित वारि जो है. सो दूर क्या न करता विषके विकार ? ।। १ ।। टीका-भो जिनेन्द्र ! मनीषिभिः पुंभिः अयं प्रमाांसद्धः । आत्मा त्वदभेदबुद्ध्या त्वत्तः सकाशादभिन्नधिया । ध्यातः सन् इह लोक भवत्प्रभावो भवति । यादृशा भवत्प्रभावस्तादृशेन प्रभावेन युक्तो भवति । त्वत्सदृशो भवतीत्यर्थः । मनीषा बुद्धिर्विद्यते येषां ते तैः । चत्नः अभेदः ऐक्यं तस्य बुद्धिस्तया भवद्वत् प्रभावो यस्य सः । पानीयपि अमृत पीयूष इत्यनुमानं स्मर्वमाणं सत् नामेति निश्चितं । विषविक्रारं किना अपाकरोति ? किं नो दूरीकरोति ? अपि तु कोसीधधः । विकारो विषविकारस्तम् ।।१७।। अन्वयार्थ..-(जिनेन्द्र !) हे जिनेन्द्र ! ( मनीषिभिः) बुद्धिमानों के द्वारा ( त्वदभेदबुद्धया ) 'आपसे अभिन्न है' ऐमी बुद्धि से ( ध्यातः ) ध्यान से किया गया (अयम् आत्मा) यह आत्मा ( भवत्प्रभावः ) आप ही के समान प्रभाववाला ( भवति ) हो जाता है । ( अमृतम् इति अनुचिन्त्यमानम् ) यह अमृत है. इस तरह निरन्तर चिन्तवन किया जाने वाला ( पानीयम् अपि ) पानी भी (किम् ) क्या (विषविकारम् ) विषके विकार को ( नो अपाकरोति नाम) दूर नहीं करता? अर्थात् करता है । भावार्थ-जो पुरुष अपने आपको आपसे अभिन्न अनुभव करता है अर्थात् जो सोचता है कि 'भगवन् ! जैसी विशुद्ध आत्मा आपकी है, निश्चय नयसे हमारी आत्मा भी वैसी ही विशुद्ध है, किंतु वर्तमान में कर्मोदय से अशुद्ध हो रही है 1 यदि मै भी आपके रास्ते पर चलने का प्रयत्न करूँ, तो मेरी आत्मा भी शुद्ध हो जावेगी' । ऐसा सोचकर जो शुद्ध होने का प्रयत्न करता है, वह आपके ही समान शुद्ध हो जाता है। जैसे कि यह अमृत है. इस प्रकार निरन्तर चिन्तवन किया गया पानी मन्त्रादि के संयोग से
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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