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७६ : पंचस्तोत्र अथ पक्षे । हि युक्तोऽयमर्थः । हि यस्मात्कारणात् । मध्यविवर्तिनां । प्राणिनां एतत् स्वरूप एतत् किं ? यत् मध्यविवर्तिनो महानुभावाः विग्रहं । कलहं पक्षे शरीरं । प्रशमयंति उपशमयंति । मध्ये विवर्तन्त इत्येवंशीला: मध्यविवर्तिनः । महान् अनुभावः महिमा येषां ते महानुभाषा: 11१६।।
अन्वयार्थ (जिन !) हे जिनेन्द्र ! ( भव्यैः ) भव्य जीवों के द्वारा (यस्य) जिस शरीर के ( अन्तः ) भीतर ( त्वम् ) आप ( सदैव ) हमेशा (विभाव्यस) ध्याये जाते हों ( तत् ) उस (शरीरम् अपि) शरीर को भी आप ( कथम् ) क्यों ( नाशयसे) नष्ट करा देते हैं ? ( अथ) अथवा ( एतत्स्वरूपम् ) यह स्वभाव ही है,( यत् )कि ( मध्यविवर्तिनः ) मध्यस्थ-बीच में रहने वाले और राग द्वेष से रहित ( महानुभावाः) महापुरुष (विग्रहम् ) विग्रहशरीर और द्वेषको ( प्रशमयन्ति ) शान्त करते हैं ।
भावार्थ-लोक में रीति प्रचलित है कि जो जहाँ रहता है, अथवा जहाँ जिसका ध्यान-सम्मान आदि किया जाता है वह उस जगह का विनाश नहीं करता । पर भगवन् ! आप भव्य जीवोंको जिस शरीर में हमेशा सन्मानपूर्वक ध्याये जाते हैं, आप उन्हें उसी विग्रह (शरीर) को नष्ट करने का उपदेश देते हैं । आचार्यको पहले इस लोकविरुद्ध बात पर भारी आश्चर्य होता है । पर जब उनकी दृष्टि विग्रह शब्द के द्वेष अर्थ पर जाती है, तब उनका आश्चर्य दूर हो जाता है । श्लोक में आये हुए विग्रह शब्द के दो अर्थ हैं-एक 'शरीर' और दूसरा द्वेष' इसी तरह ‘मध्यविवर्तिनः शब्द के भी दो अर्थ हैं--एक 'बीचमें रहने वाला' और दूसरा 'राग द्वेष से रहित समताभावी' ।।१६।।
आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्धया ___ ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं
किन्नाम नो विषविकारमपाकरोति ।।१७।।