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________________ कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ७५ टीका–भो जिनेश ! भविन: प्राणिनः । भवतो ध्यानात् । क्षणेन क्षणमात्रेण । देहं शरीरं । विहाय समुत्सृज्य । परमात्मदशां परमात्मावस्थां व्रजन्ति प्राप्नुवन्ति । परमात्मनो दशा ताम् । क इव ? धातुभेदा इव । यथा धातुभेदाः सुवर्णोपलाः लोके संसारे । तीव्रानलात् अत्यन्तदुःसहाग्ने: सकाशात् । उपलभावं उपलत्वं । अपास्य विहाय । अचिरात् अचिरकालेन । चामीकरत्वं सुवर्णभावं गच्छन्ति । तीवश्चासौ अनलश्च तीव्रनलस्तस्मात् । चामांकरस्य भावः चामांकरत्वम् ।।१५।। अन्ययार्थ—(जिनेश !) हे जिनेन्द्र ! (लोके) लोक में (तीनानलात्) तीव्र अग्नि के सम्बन्ध से ( धातुभेदाः ) अनेक धातुएँ ( उपलभावम् ) पत्थर रूप पूर्व पर्याय को ( अपास्य) (विहाय) छोड़कर (अचिरात्) शीघ्र ही (चामीकरत्वम् इव ) जिस तरह सुवर्ण पर्यायको प्राप्त हो जाती हैं, उसी तरह (भविनः ) संसार के प्राणी ( भवत:) आपके (ध्यानात् ) ध्यान से ( देहम् ) शरीर को छोड़कर (क्षणेन) क्षणभर में ( परमात्मदशाम् ) परमात्मा की अवस्था को (व्रजन्ति ) प्राप्त हो जाते हैं । भावार्थ-जो जीव आपका ध्यान करते हैं, वे थोड़े ही समय में शरीर छोड़कर मुक्त हो जाते हैं ।।१५।। अन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् । एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ।।१६।। ध्याते सुभव्य तुझको जिसमें सदा ही. कैसे विनाश करता उस देह का तू? मध्यस्थ का यह मनोहर रूप ही है. या नाथ ! जो विकट विग्रह को नशावे ।। १६ ।। टीका-हे जिन ! यस्य शरीरस्यान्तर्मध्ये । सदैव सर्वदा काले । भव्यं प्राणिभिस्त्वं । विभाव्यसे स्मर्यसे । तदपि शरीरं कथं नाशयसे ।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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