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________________ ७४ : पंचस्तोत्र किं सम्भवि सम्भवति? अपि तु न सम्भवति । कथंभूतस्य अक्षस्य ? निर्मला रुचिर्यस्य स तस्य ।।१४।। अन्वयार्थ--(जिन ! ) हे जिनेन्द्र ! ( योगिनः ) ध्यान करने वाले मुनीश्वर (सदा) हमेशा (परमात्मरूपम् ) परमात्मास्वरूप (त्वाम् ) आपको ( हृदयाम्बुजकोशदेशे) अपने हृदयरूप कमल के मध्यभाग में ( अन्वेषयन्ति ) खोजते हैं, ( यदि वा) अथवा ठीक है कि (पूतस्य) पवित्र और (निर्मलरुचेः) निर्मल कान्तिगाले ( अश्य) कान के बीज का अयवा शुद्धात्या का (सम्भवपदम् ) उत्पत्ति स्थान अथवा खोज करने का स्थान ( कर्णिकाया: अन्यत्) कमल की कर्णिका-डण्ठल को छोड़कर अथवा हृदय-कमल की कर्णिकाको छोड़कर ( अन्यत् किम् ननु) दूसरा क्या हो सकता है ? भावार्थ-बड़े-बड़े योगीश्वर ध्यान करते समय अपने हृदयकमल में आपको खोजते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि जैसे कमल बीज की उत्पत्ति कमल कर्णिकामें ही होती है, उसी तरह शुद्धात्मस्वरूप आपका सद्भाव भी हृदयकमल की कर्णिका में ही होगा । श्लोक में आये हुए अक्ष शब्द के 'कमलबीज कमलगटा' और आत्मा ( अक्षणाति-जानातीत्यक्षः = आत्मा ) इस तरह दो अर्थ होते हैं ।।१४।। ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविनः क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां ब्रजन्ति । तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ।।१५।। हे नाथ ! ध्यान करके भविलोक तेरा. पाते तुरन्त तन छोड़ परेशता को। तीवाग्नि-ताप-वश पत्थर भाव छोड़, पाते सुवर्णपन धातु विशेष ज्यों है ।। १५ ।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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