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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ७३
किये ? ( यदि वा ) अथवा ( अमुत्र लोके ) इस लोक में (हिमानी अपि ) बर्फ - तुषार ठण्डा होने पर भी ( किम् ) क्या (नीलद्रुमणि ) हरे-हरे हैं वृक्ष जिनमें ऐसे ( विपिनानि ) वनों को (न प्लोषति ) नहीं जला देता है ! अर्थात् जला देता है-मुरझा देता है ।
भावार्थ -- लोक में ऐसा देखा जाता है कि क्रोधी मनुष्य ही शत्रुओं को जीतते हैं, पर भगवन् ! आपने क्रोध को तो नवमें गुणस्थान में ही जीत लिया था। फिर क्रोध के अभाव में चौदहवें गुणस्थान तक कर्मरूपी शत्रुओं को कैसे जीता ? आचार्य ने इस लोकविरुद्ध बात पर पहले आश्चर्य प्रगट किया, पर जब बाद में उन्हें ख्याल आता है कि ठण्डा तुषार बड़े-बड़े वनों को क्षणभर में जला देता है, अर्थात् क्षमा से भी शत्रु जीते जा सकते हैं, तब वे अपने आश्चर्य का स्वयं समाधान कर लेते हैं ।। १३11
त्वां योगिनो जिन सदा परमात्मरूपमन्वेषयन्ति हृदयाम्बुजकोशदेशे | पूतस्य निर्मलरुचेर्यदि वा किमन्यदक्षस्य सम्भवपदं ननु कर्णिकायाः । । १४ ।।
स्वामिन ! सदा हृदय के बिच हेरते हैं,
योगीन्द्र भी तुझ परात्पर देवता को । क्या कर्णिका तज कहीं दुसरी जगा पैं,
होता पवित्र अति निर्मल पद्म- बीज ? 118811
टीका - भो जिन ! योगिनः सर्वदा सर्वकाले | हृदयाम्बुजकोशदेशे निजमनोऽम्बुजकोटरे । त्वां परमात्मरूपं चिदानन्दरूपं । अन्वेषयन्ति गवेषयन्ति । परं सर्वोत्कृष्टं मं ज्ञानं यस्य स चासावात्मा स एव रूपं स्वरूपं यस्य स तं । हृदयमेवाम्बुजं कमलं हृदयाम्बुजं तस्य कोशदेशस्तस्मिन् । यदि वा युक्तोऽयमर्थः ननु निश्चितं कर्णिकायाः सकाशात् अन्यत् पूतस्य निर्मलस्य अक्षस्य कमलबीजस्य । यत् स्थानं