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७० : पंचस्तोत्र वह ( नूनम् ) निश्चयसे ( अन्तर्गतस्य ) भीतर स्थित ( मरुतः ) हवाका ही ( अनुभावः किल ) प्रभाव है।
भावार्थ हे प्रभो ! जिस तरह भीतर भरी हुई वायु के प्रभाव से मसक पानी में तैरती है, उसी तरह आपको हृदय में धारण करने वाले ( मन से आपका चिन्तवन करने वाले) पुरुष आपके ही प्रभाव से संसार-समुद्र से तिरते हैं ।।१०।। यस्मिन्हर प्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः
सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुज: पथसाथ यन
पीतं न किं तदपि दुर्द्धरवाड़वेन ।।११।। जिस पै प्रभाव चलता न बड़े सुरों का,
तूने किया यश विभो ! उस काम को भी । देता बुझा सलिल सो सन्त्र बहियों को,
सो बाड़वाग्नि पर जोर चला न सकता ।। ११ ।। टीका–भो पार्श्वनाथ ! यस्मिन् कामे हरिप्रभृतयोऽपि ब्रह्माविष्णुमहेशादयो हतप्रभावा निरस्तशक्तयो जाताः सोऽपि रतिपतिः कामस्त्वया क्षणेन क्षणमात्रेण क्षपितो ध्वस्तः । अथ युक्तोऽयमर्थः । येन पयसा हुतभुजोऽग्नयो विध्यापिता निरस्तास्तदपि जलं दुर्द्धरवाडवेन दुःसहवाड-वाग्निना किं न पीतं ? अपि तु शोषितमित्यर्थः ।।११।।
अन्वयार्थ ( यस्मिन् ) जिसके विषय में (हरप्रभृतयः अपि) महादेव आदि भी ( हतप्रभावा: जाताः ) प्रभाव रहित हो गये हैं, (सः) वह ( रतिपतिः अपि) कामदेव भी (त्वया) आपके द्वारा ( क्षणेन) क्षणमात्र में (क्षपित्तः ) नष्ट कर दिया गया ( अथ) अथवा ठीक है कि ( येन पयसा ) जिस जलने ( हुतभृजः विध्यापिताः) अग्निको बुझाया है, (तत् अपि ) वह जल भी (दुर्द्धरवाडवन) प्रचण्ड बड़वानलके द्वारा (किम् ) क्या (न पीतम् ) नहीं पिया गया ? अर्थात् पिया गया।