________________
कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ७९ भावार्थ-जिस कामने हरि, हर, ब्रह्मा आदि महापुरुषों को पराजित कर दिया था, उस काम को भी आपने पराजित कर दिया यह आश्चर्य की बात नहीं है । क्योंकि जो जल संसार की समस्त अग्नि को नष्ट करता है, उस जलको भी बड़वानल नामक समुद्रकी अग्नि नष्ट कर डालती है ।।११।। स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्नाः
त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः । जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन
चिन्त्यो न हंत महतां यदि वा प्रभाव: ।।१२।। अत्यन्त गौरव विभो ! तुझमें दिखाता,
कैसे तुझे फिर धरें, हिय में मनुष्यसंसार-सिन्धु तरते श्रम के बिना ही,
जाना प्रभाव नहिं जाय महाजनों का ।। १२ ।। टीका-भो स्वामिन् ! अतुल्यगरिमाणमपि मानरहितगुरुत्व भाराक्रान्तमपि । त्वां प्रपन्नाः प्राप्ता जन्तवः अहो इत्याश्चयें । हृदय दधानाः सन्तः । लघु यथा स्यात्तथा । जन्मोदधिं भवार्णवं 1 अतिलाघवेन शीघ्रण । कथं तरंति ? अन्यत् गुरुत्वाक्रान्तवस्तु हृदये दधानाः सन्तः प्राणिनोऽब्यौ निमज्जंति । त्वां गुरुत्वाक्रान्तं हृदये दधानाः सन्तः भवार्णवे तरंति तन्मम मनसि महच्चित्रं | यदि वा पक्षांतरे हंत इत्यहो महता महानुभावानां परमपुरुषाणां प्रभावो लोकोत्तरो महिमा न चिन्त्यः ना विचारणीय इत्यर्थः ।।१२।।
अन्वयार्थ (स्वामिन् ! ) हे प्रभो ! ( अहो) आश्चर्य है कि ( अनल्पगरिमाणम् अपि ) अधिक गौरव से युक्त भी विरोध पक्ष में-अत्यन्त वजनदार ( त्वाम् ) आपको ( प्रपन्ना: ) प्राप्त हो (हृदये दधानाः) हृदय में धारण करने वाले ( जन्तवः ) प्राणी ( जन्मोदधिम्) संसार-समुद्र को (अतिलाघवेन) बहुत ही लघुतासे (कथम् ) कैसे ( लघु) शीघ्र ( तरन्ति ) तर जाते हैं।