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________________ कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ६: (पशवः इव ) पशुओं की तरह ( त्वयि वीक्षिते अपि ) आपके दिखते ही आपके दर्शन करते ही ( मनुजाः) मनुष्य (रौद्रैः ) भयङ्कर ( उपद्रवशतैः) सैकड़ो उपद्रवों के द्वारा ( सहसा एव ) शीघ्र ही ( मुच्यन्ते) छोड़ दिये जाते हैं। भावार्थ हे नाथ ! जिस तरह तेजस्वी राजा के दिखते ही चोर चुराई हुई गायों को छोड़कर शीघ्र ही भाग जाते हैं, उसी तरह आपके दर्शन होते ही भयङ्कर उपद्रव मनुष्यों को छोड़कर भाग जाते हैं ।।९।। त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ।।१०।। तू तारता किस तरा भविमानवों को वे हो तुझे हृदय में रख के ताने ; या वारिमें मसक जो तिरती विभो ! है, है सो प्रभाव बस भीतर को हवा का ।।१०।। टीका--- यत् यस्मात्कारणात् । त एव प्राणिनः भवाब्धे उत्तरन्तः सन्तो हृदयेन त्वां उद्वहन्ति तारयन्ति । अहमेवं सम्भावयामि भवः संसार: विद्यते येषां ते भविनस्तेषां भविनां । यद्वा युक्तोऽयमर्थः । यत् यस्मात्कारणात् दृतिश्चर्मभस्रिका जलं तरति । नूनं निश्चितं । किलेति सत्ये । एष अन्तर्गतस्य मरुतः पूरितस्य वायोरनुभावः प्रभावः ||१०|| अन्वयार्थ (जिन !) हे जिनेन्द्रदेव ! ( त्वम् भविनाम तारकः कथम् ) आप संसारी जीवों को तारने वाले कैसे हो सकते हैं ? ( यत् ) क्योंकि ( उत्तरन्तः) संसार-समुद्र से पार होते हुए ( ते एव) वे संसारी जीव ही ( हृदयेन) हृदय से ( त्वाम् ) आपको (उद्वहन्ति ) तिरा ले जाते हैं ( यद्वा ) अथवा ठीक है कि ( दृतिः) मसक ( यत् ) जो ( जलम् तरति ) पानी में तैरती है, (सः एषः)
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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