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६८ : पंचस्तोत्र
अन्वयार्थ—(विभो !) हे स्वामिन् ! ( त्वयि ) आपके (हृद्धर्तिनि 'सति') हृदयमें मौजूद रहते हुए (जन्तोः) जीवों के (निबिडाः अपि) सघन भी (कर्मबन्धाः) कर्मोके बन्धन, (क्षणेन ) क्षणभरमें ( वनशिखण्डिनि) वन मयूर के ( चन्दनस्य मध्यभागम् अभ्यागते 'सति') चन्दन तरुके बीच में आनेपर (भुजङ्गममया इव ) सर्यों की कुण्डलियोंके समान ( सद्यः शीघ्र ही ( शिथिलीभवन्ति ) ढीले हो जाते हैं।
भावार्थ- हे भगवन् ! जिस तरह मयूर के आते ही चन्दनके वृक्षमें लिपटे हुए साँप ढीले पड़ जाते हैं, उसी तरह जीवोंके हृदयमें आपके आनेपर उनके कर्मबन्धन ढीले पड़ जाते हैं ।।८।। मुच्यन्त एव मनुजाः महस" जिनेन्द्र !
रोनॆरुपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे
चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ।। ९ ।। त्यागें अवश्य सहसा तुझको विलोके,
लाखों उपद्रव महेश्वर ! मानवों को। तेजस्वि गोपति विलोकन मात्र से ही,
ज्यों चोर छोड़ भगते पशुवृन्दको हैं ।। ९ ।। टीका–भो जिनेन्द्र ! त्वयि भगवति त्रीक्षिते सति । रौद्रैरपि उपद्रवशतैः उपसर्गकोटिभिः । मनुजाः सहसा मुच्यन्त एव विमुक्ता एव ।। कैरिव ? चौरैरिव । यथाः चौरैः गोस्वामिनि नृपे दृष्टमात्रे सति । आशुशीघ्रं । पशवः मुच्यते । कथंभूते गोस्वामिनि ? स्फुरितुं प्रतापाक्रान्त तेजो यस्य स तस्मिन् । कथंभूतैश्चौरैः। प्रकर्षण पलायमानाः प्रपलायमानास्तैः शीघ्रं नश्यद्भिः ॥९।। ___अन्वयार्थ (जिनेन्द्र !) हे जिनदेव ! (स्फुरिततेजसि ) पराक्रमी ( गोस्वामिनि ) राजाके ( दृष्टमात्रे ) दिखते ही (आशु) शीघ्र ही ( प्रपलायमानैः) भागते हुए ( चौरैः ) चोरों के द्वारा