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________________ कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ६७ अन्वयार्थ - ( जिन!) हे जिनेन्द्र ! (अचिन्त्यमहिमा ) अचिंत्य है माहात्म्य जिसका ऐसा (ते) आपका ( संस्तवः ) स्तवन (आस्ताम् ) दूर रहे, ( भवतः ) आपका (नाम अपि ) नाम भी ( जगन्ति ) जीवों को ( भवतः ) संसार से ( पाति ) बचा लेता है। क्योंकि ( निदाघे ) ग्रीष्मकालमें (तीव्रातपोहतपान्धजनान् ) तीव्र घामसे सतरे हुए पथिकजनों को ( पद्मसरस: ) कमलोक सरोवरका ( सरस: ) सरस- शीतल ( अनिल अपि ) पवन भी ( प्रीणाति ) सन्तुष्ट करता है । भावार्थ- हे देव ! आपके स्तवनकी तो अचिन्त्य महिमा है ही, पर आपका नाममात्र भी जीवोंको संसारके दुखोंसे बचा लेता है। जैसे ग्रीष्मऋतु में धाम से पीड़ित मनुष्योंको, कमलयुक्त सरोवर तो सुख पहुँचाते ही हैं, पर उन सरोवरोंकी शीतल हवा भी सुख पहुँचाती है ।। ७।। हद्वर्तिनि त्वयि विभो ? शिथिलीभवन्ति जन्तो: क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।। ८ ।। तू लोक के हृदय में यदि हो विभो ! तो. ढीले तुरन्त पड़ते दृढ़ कर्मबन्ध । आया मयूर वन का कि भुजंग जैसे, ढीले पड़ें तुरत चन्दन बन्ध छोड़ ॥ ८ ॥ टीका - हे विभो ! त्वयि भगवति हृद्वर्तिनि सति चित्ते वर्तयति सति । जन्तोः प्राणिनः । निबिड़ा अपि कर्मबन्धाः क्षणेन क्षणमात्रेण । शिथिलीभवति । हृदि वर्तत इत्येवंशील: हृद्वतीं तस्मिन । कर्मणां बन्धाः कर्मबन्धाः अशिथिला : शिथिला भवतीति शिथिलीभवति । के इव ? भुजंगममया बन्धा इव । यथा वनशिखण्डिनि वनमयूरे चन्द्रनस्य मध्यभागमभ्यागते सति भुजंगममया बन्धा इव सद्यः तत्कालं शिथिलीभवंति । भुजंगमप्रकारा भुजंगममयाः प्रकारे मयट् ॥१८॥
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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