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६६ : पंचस्तोत्र
कहनेके लिये (न यान्ति) नहीं प्राप्त होते अर्थात् जिनका कथन योगीजन भी नहीं कर सकते (तेषु ) उनमें ( मम) मेरा ( अवकाश:) अवकाश (कथम् भवति) कैसे हो सकता है ? अर्थात् मैं उन्हें कैसे वर्णन कर सकता हूँ ? (तत्) इसलिए ( एवम् ) इस प्रकार ( इयम् ) मेरा यह (असमीक्षितकारिता जाता) बिना विचारे काम करता हुआ ( वा ) अथवा ( पक्षिणः : अपि) पक्षी भी (निजगिरा) अपनी वाणी से ( जल्पन्ति ननु) बोला करते हैं।
भावार्थ-हे प्रभो ! आपका स्तवन आरम्भ करनेके पहले मैंने इस बातका विचार नहीं किया कि आपके जिन गुणोंका वर्णन बड़े-बड़े योगी भी नहीं कर सकते हैं, उनका वर्णन मैं कैसे करूंगा? इसलिये हमारी यह प्रयास बिना वेिचार हुई है ।।६।। आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन ! संस्तवस्ते
नामापि पाति भक्तो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाघे
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ।। ७ ।। माहात्म्य तो स्तवनका तव है अचिन्त्य,
है नाम ही त्रिजगको भवसे बचाता । जो ग्रीष्म में पथिक आतप से सताये,
देती उन्हें सुख-सरोवर की हवा ही ।।७।। टीका–भो जिन ! ते तव । संस्तवः स्तवनं । आस्तां दूरे तिष्ठतु | कथंभूतः संस्तवः ? अचिन्त्यमहिमा अनिर्वचनीयमहिमा यस्य स इति अचिन्त्यमहिमा । भवतस्तव नामाऽपि अभिधानमपि । भवतः संसारात् । जगति पाति रक्षति । निदाघे ग्रीष्मे । पद्मसरसः पद्ममंडिततडागस्य सरसः रसेन जलच्छटाभिः सह वर्तमान: 1 अनिलोऽपि वायुस्तीत्र: दुस्सहः स चासावातपस्तेन उपहता उपवद्रुताश्च ते पांथा जनाश्च पथिकास्तान् प्रीणाति तर्पयति ।।७।।