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६४ : पंचस्तोत्र रत्नराशिः । मीयते मानं कुर्वीत । कथंभूतस्य जलधेः ? कल्पान्तः प्रलयस्तेन वान्तानि बहिष्कृतानि पयांसि जलानि यस्य स तस्य ।।४।।
__ अन्वयार्थ-( नाथ !) हे नाथ! (मर्त्यः) मनुष्य (मोहक्षयात् ) मोहनीयकमक क्षयसे ( अनुभवन् अपि ) अनुभव करता हुआ भी (तब ) आपके ( गुणान् ) गुणोंको ( गणयितुम्) गिननेके लिये ( नूनम् ) निश्चय करके ( न क्षमेत ) समर्थ नहीं हो सकता है । (यस्मात् ) क्योंकि (कल्पांतवांतपयः ) प्रलयकालके समय जिसका पानी बाहर हो गया है, ऐसे ( जलधेः) समुद्रकी ( प्रकट:अपि) प्रकट हुई भी ( रत्नराशिः ) रत्नोंकी राशि ( ननु केन मीयते ? ) किसके द्वारा गिनी जा सकती है ? अर्थात् किसीके द्वारा नहीं।
भावार्थ-हे प्रभो ! जिस तरह प्रलयकाल में पानी न होने से साफ-साफ दिखनेवाले समुद्रके रत्नों को कोई नहीं गिन पाता, उसी तरह मिथ्यात्वके अभावसे साफ-साफ दिखनेवाले आपके गुणोंको कोई नहीं गिन सकता । क्योंकि वे अनन्तानन्त हैं ।।४।। अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जड़ाशयोऽपि
कर्तुंस्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य
विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ।। ५ ।। तू है असंख्य गुण-शोभित मूढ़ हूँ मैं
तेरा तथापि रचने स्तव में खड़ा हूँ। फैला भुजा स्वमति के अनुसार क्या है.
विस्तीर्णता न निधि की शिशु भी बताता ? ।।५।। टीका-भो नाथ ! जडाशयोऽपि अहं । तव परमेश्वरस्य । स्तवं कर्तुमभ्युद्यतोस्मि । कथंभूतस्य तव? लसन्तः शोभमानाः असंख्य ये गुणास्तेषामाकरस्तस्य । बालोऽपि स्वधिया बालस्वबुद्ध्या । निज बाहुयुगं वितत्य विस्तार्य । अम्बुराशेः समुद्रस्य । विस्तीर्णतां किं न कथयति न प्ररूपयत्ति ? अपि तु प्ररूपयतीति तातार्या ।". '