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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : ६३ अन्धयार्थ—(अधीश ! ) हे स्वामिन् ! (सामान्यतः अपि ) साधारण रीतिसे भी (तव ) तुम्हारे ( स्वरूपम् ) स्वरूपको ( वर्णयितुम) वर्णन करनेके लिये (अस्मादृशाः) मुझ जैसे मनुष्य ( कथम् ) कैसे ( अधीशाः ) समर्थ (भवन्ति ) हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते। ( यदि वा ) अथवा (दिवान्धः) दिनमें अन्धा रहनेवाला ( कौशिकशिशुः ) उलूकका बच्चा ( धृष्ट अपि 'सन') धीठ होता हुआ भी (किम् ) क्या ( धर्मरश्मेः ) सूर्यके ( रूपम् ) रूपका ( वर्णयति किल ) वर्णन कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता।
भावार्थहे प्रभो ! जिस तरह उलूकका बालक सूर्यके रूपका वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि जबतक सूर्य रहता है, तबतक वह अन्धा रहता है, इसी तरह मैं आपके सामान्य स्वरूपका भी वर्णन नहीं कर सकता हूँ, क्योंकि मैं भी मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकारसे अन्धा होकर आपके दर्शनस वञ्चित रहा हूँ ।।३।। मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मयों
नूनं गुणान् गणयितुं न तव क्षमेत । कल्पान्तवान्तपयसः प्रकटोऽपि यस्मा
न्मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ।। ४ ।। हैं जानता हृदय में गुण मोह छूटे
तेरे भवी, गिन नहीं सकता परन्तु । कल्पान्त में जलधि के सब रत्न दीखें,
अन्दाज कौन सकता कर है उन्हों का ।।४।। टीका– भो नाथ ! भोः स्वामिन ! नूनं निश्चितं ! मयों मनुष्यः मोहक्षयात् मोहनीयकर्मविनाशात् । अनुभवन्नपि जानन्नपि । तव परमेश्वरस्य गुणान् । गणयितु संख्याकर्तुं । न क्षमेत न समर्थो भवेत् । ननु युक्तोऽयमर्थो यस्मात्कारणात्केन पुंसा । जलधेः समुद्रस्य प्रकटोऽपि
है ।।३।।