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कल्याणमन्दिर स्तोत्र के रचयिता
श्री कुमुदचन्द्राचार्य भक्तामरस्तोत्र के ही जोड़ का लोकप्रिय वसंततिलका छन्द में निबद्ध "कल्याणमन्दिर स्तोत्र" कुमुदचन्द्राचार्य की एक अमूल्य भक्तिरस से भरी रचना है । इसमें ४४ पद्य हैं । अन्तिम भिन्न छन्द के एक पद्य से स्तोत्रकर्ता का नाम कुमुदचन्द्र सूचित किया गया है जिसे कुछ लोग सिद्धसेन नामसे भी मानते हैं । लगभग छठी शती की यह रचना होना मानी जाती है । दूसरे पद्य के अनुसार यह स्तोत्र २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति में रचा गया है । भक्तामर स्तोत्र के सदृश होते हुए भी यह स्तोत्र अपनी काव्य कल्पनाओं और शब्द योजनाओं में मौलिक ही है । जिन स्तुति करते हुए आपने लिखा-हे जिनेन्द्र, आप इन भव्यों को संसार से कैसे पार कर देते हैं, जो अपने हृदय में आपका नाम धारण करते हैं ? हाँ जाना, जो एक मशक ( दृति ) भी जल में तैर कर निकल जाती है, वह इसके भीतर भरे हुए पवन का ही तो प्रभाव है । हे प्रभो ! अपने हृदय में धारण करने पर पापरूपी सर्प उसी प्रकार भाग जाते हैं जैसे मयूर की आवाज सुनते ही चन्दन पर लपटे सर्प ढीले पड़ जाते हैं । हे प्रभो ! आपके ध्यान से भव्य पुरुष क्षणमात्र में देह को छोड़कर परमात्म को प्राप्त हो जाते हैं, क्यों न हो, तीव्र अग्नि के प्रभाव से नाना धातुएँ अपने पाषाण भाव को छोड़कर शुद्ध सुवर्णत्व को प्राप्त कर लेती हैं ।
कल्याणमंदिर स्तोत्रकी रचनाके पीछे जो इतिहास छिपा है उसका वर्णन लिखते हुए मंगलाष्टक स्तोत्रमें कविने लिखा है ..
श्रीमत् कुमुदचन्द्र मुनिवरसों. वादपर्यो जहँ सभा मंझार । तब ही श्री कल्याणधामथुति, श्री गुरु रचना रची अपार ।। तब प्रतिमा श्री पार्श्वनाथ की, प्रकट भई त्रिभुवन जयकार । सो गुरुदेव बसो उर मेरे, विघनहरण मंगल करतार ।।