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५८ : पंचस्तोत्र
जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर । शूरवीर नृप की सेनाएँ, रख करती हों चारों ओर ।। वहाँ अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुन्दर तेरा नाम । सूर्य-तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम तमाम १४२।। रण में भालों से वेधित गज, तन से बहता रक्त अपार । वीर लड़ाकू जहँ आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार ।। भक्त तुम्हारा हो निराश तह, लख अरिसेना दुर्जयरूप । तव पादारविन्द पा आश्वय जय पाता उपहार-स्वरूप १६४३।। वह समुद्र कि जिसमें होवें, मच्छ मगर एवं घड़ियाल । तूफाँ लेकर उठती होवें, भयकारी लहरें उत्ताल ।। भ्रमर-चक्र में फँसी हुई हो, बीचों बीच अगर जल यान । छुटकारा पा जाते दुख से, करने वाले तेरा ध्यान ।।४४।। असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोदर पीड़ा भार । जीने की आशा छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार ।। ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद-रज संजीवन । स्वास्थ्य-लाभकर बनता उनका, कामदेव सा सुन्दर तन ॥४५॥ लोह-शृङ्खला से जकड़ी है, नख से शिर तक देह समस्त । घुटने-जंचे छिले बेड़ियों से. अधीर जो है अतित्रस्त । भगवन ऐसे बन्दीजन भी, तेरे नाम-मंत्र की जाप । जपकर गत-बन्धन हो जाते, क्षणभर में अपने ही आप १४६ ।। वृषभेश्वर के गुण स्तवन का, करते निशिदिन जो चिंतन । भय भी भयाकुलित हो उनसे, भग जाता है है स्वामिनं ।। कुंजर--समर-सिंह-शोक-रुज. अहिं दावानल कारागार । इनके अति भीषण दुःखों का, हो जाता क्षण में संहार ।।४७।। हे प्रभु तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य-ललाम । गूंधी विविध वर्ण सुमनों की. गुण-माला सुन्दर अभिराम ।। श्रद्धा सहित भविकजन जो भी, कण्ठामरण बनाते हैं। मानतुङ्ग-सम निश्चित सुन्दर, मोक्ष लक्ष्मी पाते हैं।।४८||