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भक्तामर स्तोत्र : ५७ मोक्ष-स्वर्ग के मार्ग प्रदर्शक, प्रभुवर तेरे दिव्य-वचन । करा रहे हैं 'सत्य-धर्म के, अमर-तत्व का दिग्दर्शन ।। सुनकर जग के जीव वस्तुतः, कर लेते अपना उद्धार । इस प्रकार परिवर्तित होते, निज-निज भाषा के अनुसार ।।३५ ।। जगमगात नख जिसमें साभ, जैसे नभ में चन्द्र किरण ... विकसित नूतन सरसोरुहसम, हे प्रभु तेरे विमल चरण । रखते जहाँ वहीं रचते हैं, स्वर्णकमल सुरदिव्य ललाम । अभिनन्दन के योग्य चरण तय, भक्ति रहे उनमें अभिराम ॥३६।। धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य । वैसा क्या कुछ अन्य कुदेवों, में भी दिखता है सौन्दर्य ।। जो छवि धोर-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती । वैसी ही क्या अतुल कान्ति. नक्षत्रों . में लेखी जाती ।।३७।। लोल कपोलों से झरती है, जहाँ निरन्तर मद की धार । होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौरे गुंजार ।। क्रोधासक्त हुआ यों हाथी, उद्धत ऐरावत सा काल। देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तव आश्रय तत्काल ॥३८।। क्षत-विक्षत कर दिये गजों के, जिसने उन्नत गण्डस्थल । कांतिमान गज-मुक्ताओं से. पाट दिया हो अवनी-तल ।। जिन भक्तों को तेरे चरणों के, गिरि को हो उन्नत ओट। ऐसा सिंह छलांगें भरकर, क्या उसपर कर सकता गोट ?||३९।। प्रलयकाल की पवन उठाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर । फिकें फुलिंगे ऊपर तिरछे, अङ्गारों का भी होवे जोर ।। भुवनत्रय को निगला चाहे, आती हुई अग्नि भभकार । ग्रभु के नाम-मंत्र जल से, वह बुझ जाती है उसही बार ।।४।। कंठ कोकिला सा अतिकाला, क्रोधित हो फण किया विशाल । लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटे नाग महा विकराल । नाम-रूप तव अहि-दमनी का लिया जिन्होंने ही आश्रय । पग रख कर निशङ्क नाग पर, गमन करें ये नर निर्भय ।।४।।