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५६ : पंचस्तोत्र
उन्नत तरु अशोक के आश्रित, निर्मल किरणोत्रत वाला। रूप आपका दिपता सुन्दर, तमहर मनहर छवि वाला। वितरण किरण निकरतमहारक, दिनकर घनके अधिक समीप । नीलाचल पर्वत पर होकर, नीराजन करता ले दीप ॥२८॥ मणि-मुक्ता किरणों से चित्रित, अद्भुत शोभित सिंहासन । कान्तिमान कंचन-सा दिया, जिसपर र नमीय . . उदयाचल के तुङ्ग शिखर से, मानो सहस्त्ररश्मि वाला। किरण-जाल फैलाकर निकला, हो करने को उजियाला ॥२९॥ दुरते सुन्दर चवर विमल अति, नवल कुन्द के पुष्प समान ! शोभा पाती देह आपकी, रौप्य धवल-सी आभावान ।। कनकाचल के तुङ्ग शृङ्ग से. झर झर झरता है निर्झर । चन्द्र-प्रभा सम उछल रही हो, मानो उसके हो तट पर ॥३०॥ चन्द्र-प्रभा सम झल्लरियों से, मणि-मुक्तामय अति कमनीय । दीप्तिमान् शोभित होते हैं, सिर पर छत्रत्रय भवदीय।। ऊपर रहकर सूर्य-रश्मि का, रोक रहे हैं प्रखर- प्रताप । मानों वे घोषित करते हैं, त्रिभुवन के परमेश्वर आप ॥३१॥ ऊँचे स्वर से करने वाली, सर्व दिशाओं में गुञ्जन । करने वाली तीन लोक के. जन-जन का शुभ-सम्मेलन ।। पीट रही है डंका-"हो सत् धर्म'–राज की ही जय-जय। इस प्रकार बज रही गगन में. भेरी तव यश की अक्षय ॥३२॥ कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार । गन्धोदक की मंद वृष्टि करते हैं, प्रमुदित देव उदार ।। तथा साथ ही नभ से बहती, धीमी धीमी मन्द पवन । पंक्ति बाँध कर बिखर रहे हों, मानों तेरे दिव्य वचन ।।३३।। तीन लोक की सुन्दरता यदि, मूर्तिमान बनकर आवे । तन-भा-मंडल को छवि लखकर, तव सन्मुख शरमा जावे।। कोटिसूर्य के ही प्रताय सम, किन्तु नहीं कुछ भी आताप । जिनके द्वारा चन्द्र सुशीतल, होता निष्प्रभ अपने आप ॥३४॥