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भक्तामर स्तोत्र : ५५ हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन । क्योंकि उन्हें देखने भर से तुझसे सोषित होला मन !! . . .. है परन्तु क्या तुम्हें देखने से, हे स्वामिन् ! मुझको लाभ । जन्म जन्म में भी न लुभा पाते, कोई यह मम. अमिताभ ।।२१।। सौ सौ नारी सौ सौ सुत को, जनती रहती सौ सौ ठोर । तुम से सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और ।। तारागण को सर्व दिशाएँ, घरें नहीं कोई खाली । पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपत्ति को जनने वाली ।।२२।। तुमको परम पुरुष मुनि मानें, विमल वर्ण रवि तमहारी । तुम्हें प्राप्त कर मृत्युञ्जय के, बन जाते जन अधिकारी ।। तुम्हें छोड़कर अन्य न कोई, शिवपुर-पथ बतलाता है। किन्तु विपर्यय मार्ग बताकर, भव-भव में भटकाता है ॥२३॥ तुम्हें आद्य अक्षय अनन्त प्रभु, एकानेक तथा योगीष । ब्रह्मा ईश्वर या जगदीश्वर. विदित योग मुनिनाथ मुनमेश ।। विमल ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश । इत्यादिक नामों कर माने, सन्त निरन्तर विभो निधीश ॥२४॥ ज्ञान पूज्य है, अमर आयका. इसीलिये कहलाते बुद्ध । भुवनत्रय के सुख-सम्वर्द्धक, अत: तुम्हीं शङ्कर हो शुद्ध ।। मोक्ष-मार्ग के आद्य प्रवर्तक. अतः विधाता कहें गणेश । तुम सम अवनी पर पुरुषोत्तम, और कौन होगा अखिलेश ।।२५।। तीन लोक के दुःखहरण, करने वाले हो तुम्हें नमन । भूमण्डलके निर्मल-भूषण. आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन ।। हे त्रिभुवन के अखिलेश्वर हो, तुमको बारम्बार नमन। भव- सागर के शोषक पोषक, भव्य जनों के तुम्हें नमन ।।२६।। गुणसमूह एकत्रित होकर. तुझमें यदि पा चुके प्रवेश । क्या आश्चर्य न मिल पाये हो, अन्य आश्रय उन्हें जिनेश ।। देव कहे जाने वालों से, आश्रित होकर गर्वित दोष । तेरी ओर न झाँक सके वे, स्वप्न मात्र में हे गुणकोष ।।२७।।