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५४ : पंचस्तोत्र
तव गुण पूर्ण-शशाङ्क कान्तिमय, कला-कलापों से बढ़के । तीन लोक में व्याप रहे हैं, जो कि स्वच्छता में चढ़के ।। विचरें चाहे जहाँ कि जिनको, जगन्नाथ का एकाधार । कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार ।।१४।। मद की छकी अमर ललनाएं, प्रभु के मन में तनिक विकार । कर न सकी आश्चर्य कौनसा, रह जाती हैं मन को मार ।। गिर गिर जाते प्रलय पवन से, तो फिर क्या वह मेरु-शिखर । हिल सकता है रंच-मात्र भी. पाकर झंझावात प्रखर ।।१५।। धूम न बत्ती तैल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक । गिरि के शिखर उडाने वाली, बझा न सकती मारुत्त झोक। तिस पर सदा प्रकाशित रहते. गिनते नहीं कभी दिन-रात । ऐसे अनुपम आयं दीप हैं, स्व-पर-प्रकाशक जग-विख्यात ।।१६।। अस्त न होता कभी न जिसको, ग्रस पाता है राहु प्रबल । एक साथ बतलाने वाला, तीन लोक का ज्ञान विमल ।। रुकता कभी प्रभाव न जिसका, बादल की आकर के ओट। ऐसी गौरव गरिमा वाले, आप अपूर्व दिवाकर कोट ।।१७।। मोह महातम दलने वाला, सदा उदित रहने वाला। राहु न बादल से दबता पर, सदा स्वच्छ रहने वाला। विश्व-प्रकाशक मुखसरोज तव, अधिक कांतिमयशांतिस्वरूप । है अपूर्व जगका शशि-मण्डल, जगत शिरोमणि शिव का भूप ।।१८।। नाथ आपका मुख जब करता, अन्धकार का सत्यानाश । तब दिन में रवि और रात्रि में, चन्द्र-बिम्बका विफल प्रयास ।। धान्य-खेत जब धरती तल के, पके हुए हों, अति अभिराम । शोर मचाते जल को लादे, हुए घनों से तब क्या काम ? ||१९।। जैसा शोभित होता प्रभु का, स्वपर-प्रकाशक उत्तम ज्ञान । हरिहरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान ।। अति ज्योतिर्मय महारतन का जो महत्व देखा जाता । क्या वह किरणा कुलित काँच में, अरे कभी लेखा जाता ।।२०।।