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भक्तामर स्तोत्र : ५३
जिनवर की स्तुति करने से. चिर संचित भविजन के पाप । पल भर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप ॥ सकललोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त । प्रातः रवि की उन किरण लख, हो जाता क्षणमें प्राणान्त | मैं मति-होन-दीन प्रभु तेरी, शुरू करूँ स्तुति अघहान । प्रभु-प्रभाव ही चिन्त हरेगा, सन्तों का निश्चय से मान ।। जैसे कमल-पत्र पर जल-कण, मोती कैसे आभावान । दिपते हैं फिर छिपते हैं, असली मोती में हैं भगवान ।।८।। दूर रहे स्तोत्र आपका. जो कि सर्वथा है निर्दोष । पुण्य -कथा हो किन्तु आपकी, हर लेती है कल्मष-कोष ।। प्रभा प्रफुल्लित करती रहती. सर के कमलों को भरपूर । फेंका करता सूर्य किरण को, आप रहा करता है दूर ।।९।। मिदन जलपति है मुरुगुरूओं के हे गुरुवर्य । सद्भक्तों को निजसम करते. इसमें नहीं अधिक आश्चर्य ।। स्वाश्रित जन को निजसम करते, धनी लोग धन धरनी से। नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या? उन धनिकों की करनी से ।।१०।। हे अनिमेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम-पवित्र । सोषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र ।। चन्द्र-किरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान । कालोदधि का खारा पानी पीना चाहे कौन पुमान ।।११।। जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह । थे उतने वैसे अणु जगमें, शांत-राग-मय नि:सन्देह ।। हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय आभूषण रूप। इसीलिये तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप ॥१२॥ कहाँ आपका मुख अति सुन्दर, सुर-नर-उरग नेत्र हारी। जिसने जीत लिये सब जग के, जितने थे उपमानारी ।। कहाँ कलंकी बंक चन्द्रमा, रंक-समान कीट-सा दोन । जो पलाश-सा फीका पड़ता, दिन में हो करके छवि-छीन ।।१३।।