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भक्तामर भाषा
भक्त अमर नत मुकुट सुमणियों, की सु-प्रभा का जो भासक । पापरूप अतिसघन तिमिर का ज्ञान दिवाकर-सा नाशक || भव- जलजनों को जिसने दिया आदि में अवलम्बन । उनके चरण कमल का करते, सम्यक् बारम्बार नमन || १॥
सकल
वाङमय तत्वबोध से उद्भव पटुतर धी धारी । उसी इन्द्र की स्तुति से हैं, वन्दित जग-जन मन हारी || अति आश्चर्य की स्तुति करता. उसी प्रथम जनस्वामी की। जगनामी- सुखधामी तद्भव - शिवगामी अभिरामी की ||२|| स्तुति को तप्यार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ के लाज । विज्ञजनों से अर्चित हे प्रभु, मंदबुद्धि की रखना लाज || जल में पड़े चन्द्र- मंडल को, बालक बिना कौन मतिमान । सहसा उसे पकड़ने वाली प्रबलेच्छा करता गतिमान ||३||
हे जिन ! चन्द्रकान्त से बढ़कर, तवगुण विपुल अमल अति श्वेत । कह न सकें नर हे गुणसागर, सुर-गुरु के सम बुद्धि समेत ।। मक्रनक्र-चक्रादि जन्तु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार । कौन भुजाओं से समुद्र के हो सकता है परले पार ||४||
वह मैं हूँ कुछ शक्ति न रखकर भक्ति प्रेरणा से लाचार । करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वापर्य विचार || निशजिशु की रक्षार्थ आत्म-बल, बिना विचारे क्या न मृगी । जाती है मृगपति के आगे प्रेम-रंग में हुई रँगी ||५||
अल्पश्रुत हूँ श्रुतवानों से, हास्य कराने का ही धाम । करती है वाचाल मुझे प्रभु, भक्ति आपकी आठों याम || करती मधुर गान पिक मधु में जगजन मनहर अति अभिराम ।
उसमें हेतु सरस फल फूलों के युत हरे-भरे तरु - आम ||६||